बृज की बार्ता/Brij Ki Varta

ब्रज संस्कृति का ज़िक्र आते ही जो सबसे पहली आवाज़ हमारी स्मृति में आती है, वह है घाटों से टकराती हुई यमुना की लहरों की आवाज़…   श्री  कृष्ण के साथ-साथ खेलकर यमुना ने महात्मा वुद्ध और महावीर स्वामी के प्रवचनों को साक्षात उन्हीं के मुख से अपनी लहरों को थाम कर सुना। यमुना की ये लहरें रसखान और रहीम के दोहों पर झूमी हैं… सूरदास  और मीरा के पदों पर नाची हैं। यमूूना  ने ही जन्म दिया ब्रज-संस्कृति को…बृज की संस्कृति के साथ ही ‘ब्रज’ शब्द का चलन भक्ति आन्दोलन के दौरान पूरे चरम पर पहुँच गया। चौदहवीं-पन्द्रहवीं शताब्दी की कृष्ण भक्ति की व्यापक लहर ने ब्रज शब्द की पवित्रता को जन-जन में पूर्ण रूप से प्रचारित कर दिया। सूर, मीरा और रसख़ान के भजन तो जैसे आज भी ब्रज के वातावरण में गूंजते रहते हैं। कृष्ण भक्ति में ऐसा क्या है जिसने मीरा से राजसी रहन-सहन छुड़वा दिया और सूरदास की रचनाओं की गहराई को जानकर विश्व भर में इस विषय पर ही शोध होता रहा कि सूरदास वास्तव में दृष्टिहीन थे भी या नहीं। कहते हैं कि आस्था के प्रश्नों के उत्तर इतिहास में नहीं खोजे जाते लेकिन आस्था जन्म देती है संस्कृति को और गंगा और यमुना ने भी हमें सभ्यता और संस्कृति दी हैं। यमुना की देन है महाभारत कालीन सभ्यता और ब्रज का ‘प्राचीनतम प्रजातंत्र’ जिसके लिए बुद्ध ने मथुरा प्रवास के समय अपने प्रिय शिष्य (उनके भाई और वैद्य भी) ‘आनन्द’ से कहा था कि ‘यह (मथुरा) आदि राज्य है, जिसने अपने लिये महासम्मत (राजा) चुना था।यमुना की देन यह संस्कृति अब ‘ब्रज संस्कृति’ कहलाती है। इस प्रकार ब्रज की संस्कृति यद्यपि एक क्षेत्रीय संस्कृति रही है, परंतु यदि इतिहास के आधार पर हम इसके विकास की चर्चा करें तो हमें ज्ञात होगा कि यह संस्कृति प्रारंभ से ही संघर्षशील, समन्वयकारी और अपनी विशिष्ट परंपराओं के कारण देश की मार्गदर्शिका, क्षेत्रीय होते हुए भी सार्वभौमिक तथा गतिशील व अपराजेय, साथ ही बड़ी उदात्त भी रही है। यह पूरे देश के आकर्षण का केंद्र रही है तथा इसी कारण इसे प्रदेश को सदा श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता रहा है। वैदिक काल से ही यह क्षेत्र तपोवन संस्कृति का केंद्र रहा।

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18 Purana

"पुराणों से आधुनिक ज्ञान" "पुराणों को विद्यालयों में लागू करना क्यों अनिवार्य हो" अट्ठारह पुराणों का संक्षिप्त परिचयपुराण शब्द का अर्थ ही है प्राचीन कथा, पुराण विश्व साहित्य के सबसे…

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सन्ध्या,सन्ध्या-गायत्रीका महत्व और ब्रह्मचर्य/ Sandhya, Sandhya-Gayatri ka Mahatwa our Brahmacharya

संध्या वंदन से सभी तरह के रोग और शोक मिट जाते हैं। सुबह और शाम को संध्या वंदन करने से मन और हृदय निर्मल हो जाता है। सकारात्मक भावना का जन्म होता है जो कि हमारे अच्छे भविष्य के निर्माण के लिए जरूरी है। संध्योपासना के चार प्रकार है- (1)प्रार्थना (2)ध्यान, (3)कीर्तन और (4)पूजा-आरती।

ब्रह्म का अर्थ परमात्मा;चर्य का अर्थ विचरना, अर्थात परमात्मा मे विचरना, सदा उसी का ध्यान करना ही ब्रह्मचर्य कहलाता है। महाभारत के रचयिता व्यासजी ने विषयेन्द्रिय द्वारा प्राप्त होने वाले सुख के संयमपूर्वक त्याग करने को ब्रह्मचर्य कहा है। संसार के किसी भी स्थान, वस्तु, व्यक्ति आदि की अपेक्षा रखे बिना आत्माराम होकर रहना।

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विदुर नीति/ Vidur Neeti

 महाभारत हिंदू सभ्यता और संस्कृति का एक पावन धर्मग्रंथ है। इसका आधार अधर्म के साथ धर्म की लड़ाई पर टिका है। इसे पाँचवाँ वेद भी कहा जाता है। महाभारत में ही समाहित ‘श्रीमद‍्भगवद‍्गीता’ एवं ‘व‌िदुर नीति’ इसके दो आधार-स्तंभ हैं। एक में भगवान् श्रीकृष्ण अधर्म के विरुद्ध अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित करते हैं तो दूसरे में महात्मा विदुर युद्ध टालने के लिए धृतराष्‍ट्र को अधर्म (दुर्योधन) का साथ छोड़ने के लिए उपदेश करते हैं। यहाँ श्रीकृष्ण तो अपने उद‍्देश्‍य में सफल हो जाते हैं, लेकिन विदुर के उपदेश धृतराष्‍ट्र का हृदय-परिवर्तन नहीं कर पाते, जिसका परिणाम महाभारत के युद्ध के रूप में सामने आता है। लेकिन इसके लिए हम विदुरजी की नीति को विफल नहीं ठहरा सकते। उनका प्रत्येक उपदेश अनुभूत है और काल की कसौटी पर भलीभाँति जाँचा-परखा है; जैसे कि ‘पाँच लोग छाया की तरह सदा आपके पीछे लगे रहते हैं। ये पाँच लोग हैं-म‌ित्र, शत्रु, उदासीन, शरण देने वाले और शरणार्थी।’ द्वापर युग की देन ‘व‌िदुर नीति’ आज कलियुग में कहीं अधिक प्रासंगिक है, क्योंकि आज दुनिया में दुर्योधनों की बाढ़ सी आ गई है। अत: इसके उपदेशों से शिक्षा लेकर व्यक्‍ति, समाज, राज्य और देश को सुखी तथा कल्याणकारी बनाया जा सकता है।

महाभारत के विलक्षण पात्र श्री विदुर जी नीतिशास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान् थे। इस पुस्तक में उनके द्वारा धृतराष्ट्र को दिये गये उपदेशों का सानुवाद संकलन किया गया है।

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महात्मा विदुर/ Mahatma Vidur

महात्मा विदुर का यह चरित ‘आदर्श चरितमाला‘ का चौथा पुष्प है। धर्मावतार विदुरका समस्त जीवन लोककल्याण की साधनामें ही बीता। उनका सदाचार और भगवत्प्रेम सर्वथा स्तुत्य है। ये पाण्डवोंके सच्चे हितैषी एवं सखा थे और बड़े ही स्पष्टवादी और नीतिनिपुण थे  महाभारत तथा श्रीमद्धागवतके आधारपर पण्डित श्री शान्तनुविहारी जी द्विवेदीने इनके चरित्रका बहुत सरलसुन्दर एवं ओजस्विनी भाषामें वर्णन किया है। पुस्तकमें विदुरके जीवनकी प्रमुख घटनाओंका उल्लेख तो है हीसबसे सुन्दर बात यह है कि विद्वान् लेखकने विदुरकी धर्मनीतिका बहुत ही उत्तम आकलन किया हैजिसके कारण पुस्तक सबके लिये उपयोगी हो गयी है। आशा है पाठक इससे लाभ उठायेंगे।

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सती द्रोपदी/ Sati Dropadi

भारतीय सतियों में सती द्रौपदी का चरित्र अतुलनीय है। इस पुस्तक में पुण्यश्लोका सती द्रौपदी के चरित्र का महाभारत के आधार पर स्वामी अखण्डानन्द जी सरस्वती के द्वारा अत्यन्त मनोहर चित्रण किया गया है

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श्रावणमासमाहात्म्य सानुवाद/ Shravan Mas Mahatmya- Sanuvad

मनुष्यजन्म अत्यन्त दुर्लभ है । चौरासी लाख योनियोंमें भटकता हुआ प्राणी पापोंके क्षीण होनेपर भगवान्की कृपावश दुर्लभ मनुष्य-योनिमें जन्म लेता है । मनुष्य-योनिको दुर्लभ इसलिये कहा जाता है; क्योंकि अन्य योनियाँ जहाँ केवल भोगयोनियाँ ही हैं; वहीं मनुष्ययोनि एकमात्र कर्मयोनि भी है । ऐसा दुर्लभ अवसर पाकर भी यदि मनुष्य उसे व्यर्थ गँवा दे अथवा पुन: अधोगतिको प्राप्त हो जाय तो यह विडम्बना ही होगी । इसीलिये हमारे शास्त्रोंमें ऐसे विधि-विधानोंका वर्णन है, जिससे मनुष्य अपने परमकल्याणका मार्ग प्रशस्त करते हुए मुक्तिकी ओर अग्रसर हो सके ।

पुराणोंमें विभिन्न तिथियों, पर्वों, मासों आदिमें करणीय अनेकानेक कृत्योंका सविधि प्रेरक वर्णन प्राप्त होता है, जिनका श्रद्धापूर्वक पालन करके मनुष्य भोग तथा मोक्ष दोनोंको प्राप्त कर सकता है ।

निष्काम भावसे तो व्यक्ति कभी भी भगवान्की पूजा, जप, तप, ध्यान आदि कर सकता है, परंतु सकाम अथवा निष्काम किसी भी भावसे कालविशेषमें जप, तप, दान, अनुष्ठान आदि करनेसे विशेष फलकी प्राप्ति होती है-यह निश्चित है । पुराणोंमें प्राय: सभी मासोंका माहात्म्य मिलता है, परंतु वैशाख, श्रावण, कार्तिक, मार्गशीर्ष, माघ तथा पुरुषोत्तममासका विशेष माहात्म्य दृष्टिगोचर होता है, इन मासोंकी विशेष चर्या तथा दान, जप, तप, अनुष्ठानका विस्तृत वर्णन ही नहीं प्राप्त होता; अपितु उसका यथाशक्ति पालन करनेवाले बहुत-से लोग आज भी समाजमें विद्यमान हैं । मासोंमें श्रावणमास विशेष है । भगवान्ने स्वयं कहा है—

द्वादशस्वपि मासेषु श्रावणो मेऽतिवल्लभ: श्रवणार्हं यन्माहात्म्यं तेनासौ श्रवणो मत: ।।

श्रवणर्क्षं पौर्णमास्यां ततोऽपि श्रावण: स्मृत:। यस्य श्रवणमात्रेण सिद्धिद: श्रावणोऽप्यत: ।।

अर्थात् बारहों मासोंमें श्रावण मुझे अत्यन्त प्रिय है । इसका माहात्म्य सुननेयोग्य है । अत: इसे श्रावण कहा जाता है । इस मासमें श्रवण-नक्षत्रयुक्त पूर्णिमा होती है, इस कारण भी इसे श्रावण कहा जाता है । इसके माहात्म्यके श्रवणमात्रसे यह सिद्धि प्रदान करनेवाला है, इसलिये भी यह श्रावण संज्ञावाला है ।

श्रावणमास चातुर्मासके अन्तर्गत होनेके कारण उस समय वातावरण विशेष धर्ममय रहता है । जगह-जगह प्रवासी संन्यासी-गणों तथा विद्वान् कथावाचकोंद्वारा भगवान्की चरितकथाओका गुणानुवाद एवं पुराणादि ग्रन्थोंका वाचन होता रहता है। श्रावणमासभर शिवमन्दिरोंमें श्रद्धालुजनोंकी विशेष भीड़ होती है, प्रत्येक सोमवार अनेक लोग वत रखते हैं तथा प्रतिदिन जलाभिषेक भी करते हैं । जगह-जगह कथासत्रोंका आयोजन; काशीविश्वनाथ, वैद्यनाथ, महाकालेश्वर आदि द्वादश ज्योतिर्लिंगोंतथा उपलिंगोंकी ओर जाते काँवरियोंके समूह; धार्मिक मेलोंके आयोजन; भजन-कीर्तन आदिके दृश्योंके कारण वातावरण परमधार्मिक हो उठता है । महाभारतके अनुशासनपर्व (१०६। २७)-में महर्षि अंगिराका वचन है-

श्रावण नियतो मासमेकभक्तेन यः क्षिपेत् । यत्र तत्राभिषेकेण युज्यते ज्ञातिवर्धनः ।।

अर्थात ‘जो मन और इन्द्रियों को संयममें रखकर एक समय भोजन करते हुए श्रावणमासको बिताता है, वह विभिन्न तीर्थोमें स्नान करनेके पुण्यफलसे युक्त होता है और अपने कुटुम्बीजनोंकी वृद्धि करता हैं।’

स्कन्दमहापुराणमें तो भगवान्ने यहाँतक कहा है कि श्रावणमासमें जो विधान किया गया है, उसमेंसे किसी एक व्रतका भी करनेवाला मुझे परम प्रिय है—

किं बहूकेन विप्रर्षे श्रावणे विहितं तु यत् । तस्य चैकस्य कर्तापि मम प्रियतरो भवेत् ।।

स्कन्दमहापुराणके अन्तर्गत श्रावणमासका विस्तृत माहात्म्य प्राप्त होता है, इसमें तीस अध्याय हैं, जिनमें श्रावणमासके शास्त्रीय महत्त्वका सांगोपांग वर्णन मिलता है । श्रद्धालु पाठकोंके लिये इसको प्रथम बार गीताप्रेससे सानुवाद प्रकाशित किया जा रहा है ।

आशा है, मुमुक्षु धार्मिकजन इससे यथासम्भव लाभ प्राप्त करेंगे ।

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श्री भीष्मपिामह/ Shri Bhism Pitamah

भीष्म अथवा भीष्म पितामह महाभारत के सबसे महत्वपूर्ण पात्रों में से एक थे। भीष्म महाराजा शान्तनु के पुत्र थे महाराज शांतनु की पटरानी और नदी गंगा की कोख से उत्पन्न हुए थे | उनका मूल नाम देवव्रत था। भीष्म में अपने पिता शान्तनु का सत्यवती से विवाह करवाने के लिए आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने की भीषण प्रतिज्ञा की थी | अपने पिता के लिए इस तरह की पितृभक्ति देख उनके पिता ने उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान दे दिया था | इनके दूसरे नाम गाँगेय, शांतनव, नदीज, तालकेतु आदि हैं।

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