श्री वृन्दावन शतलीला/ Shri Vrindavan Shat leela

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सर्वाद्य रसिक जन वन्दित चरणा, रसिक आचार्य शिरोमणि, वंशीवतार श्री श्री हित हरिवंश चंद्र महाप्रभु द्वारा प्रवर्तित श्री राधावल्लभ सम्प्रदाय में वाणी साहित्य की प्रचुरता है। रसिक महानुभावों ने निज भाव भावना को सिद्ध कर जिस परम रस का आस्वादन किया, वाणी ग्रन्थ उसी रस का सहज सरल उद्गलन हैं।

इसी परंपरा में रसिक भूषण सन्त श्री ध्रुवदास जी की वाणी श्री राधावल्लभ सम्प्रदाय का भाष्य ग्रन्थ है। इस वाणी का सर्वाधिक महत्व यह है कि यह स्वयं श्री रास रसेश्वरी, नित्य निकुञ्जेश्वरी प्रिया श्री राधा द्वारा प्रदत्त प्रीति प्रसाद है। अत: यह रस गिरा स्वतः सिद्ध एवं सर्वरसिक जन पोषिणी तो है ही, अनेकानेक रसिक महानुभाव इस वाणी के अनुशीलन द्वारा ही सैद्धान्तिक मर्म को हृदयङ्गम कर उपासना सिद्ध करते आ रहे हैं। अत: यदि कहा जाए कि हित रस तरु को श्री ध्रुवदास जी ने बयालीस लीला के वर्णन द्वारा सुफलित किया है तो कोई अतिशयोक्ति न होगी।

इसी ग्रन्थ रुपी भाव मंजूषा में एक अति प्रिय और महामधुर भाव रत्न”श्री वृंदावन सतलीला” है, जिसका पठन एवं श्रवण मात्र सहज रुप से श्री वृंदावन अधिकारिणी का कृपा पात्र बना देता है, स्वयं श्री हित आचार्य महाप्रभु ने श्रीमद् सुधा निधि में कहा है कि :

“क्वासौ राधा निगम पदवी दूरगा कुत्र चासौ,
कृष्णस्तस्याः कुचकमलयोरन्तरैकान्तवासः।
क्वाहं तुच्छः परममधमः प्राण्यहो गयकर्मा,
इयत्ता नाम स्फुरति महिमा एष वृन्दावनस्य।।

श्री राधा माधव युगल के मधुरातिमधुर नित्य केलि रस का चिंतन तभी हो सकता है जब सर्वप्रथम सम्यक रूप से श्री वृन्दावन का स्वरूप हृदय में आए और यह स्वयं श्री वृन्दावन की कृपा से ही सम्भव है।

यह हित सौरभ सुवासित वाणी पुष्प रसिक समाज को आनन्दित करे यही श्रीहितमहाप्रभु के श्री चरण कमलों में प्रार्थना है। अभिलाषा है।

Description

सर्वाद्य रसिक जन वन्दित चरणा, रसिक आचार्य शिरोमणि, वंशीवतार श्री श्री हित हरिवंश चंद्र महाप्रभु द्वारा प्रवर्तित श्री राधावल्लभ सम्प्रदाय में वाणी साहित्य की प्रचुरता है। रसिक महानुभावों ने निज भाव भावना को सिद्ध कर जिस परम रस का आस्वादन किया, वाणी ग्रन्थ उसी रस का सहज सरल उद्गलन हैं।

इसी परंपरा में रसिक भूषण सन्त श्री ध्रुवदास जी की वाणी श्री राधावल्लभ सम्प्रदाय का भाष्य ग्रन्थ है। इस वाणी का सर्वाधिक महत्व यह है कि यह स्वयं श्री रास रसेश्वरी, नित्य निकुञ्जेश्वरी प्रिया श्री राधा द्वारा प्रदत्त प्रीति प्रसाद है। अत: यह रस गिरा स्वतः सिद्ध एवं सर्वरसिक जन पोषिणी तो है ही, अनेकानेक रसिक महानुभाव इस वाणी के अनुशीलन द्वारा ही सैद्धान्तिक मर्म को हृदयङ्गम कर उपासना सिद्ध करते आ रहे हैं। अत: यदि कहा जाए कि हित रस तरु को श्री ध्रुवदास जी ने बयालीस लीला के वर्णन द्वारा सुफलित किया है तो कोई अतिशयोक्ति न होगी।

इसी ग्रन्थ रुपी भाव मंजूषा में एक अति प्रिय और महामधुर भाव रत्न”श्री वृंदावन सतलीला” है, जिसका पठन एवं श्रवण मात्र सहज रुप से श्री वृंदावन अधिकारिणी का कृपा पात्र बना देता है, स्वयं श्री हित आचार्य महाप्रभु ने श्रीमद् सुधा निधि में कहा है कि :

“क्वासौ राधा निगम पदवी दूरगा कुत्र चासौ,
कृष्णस्तस्याः कुचकमलयोरन्तरैकान्तवासः।
क्वाहं तुच्छः परममधमः प्राण्यहो गयकर्मा,
इयत्ता नाम स्फुरति महिमा एष वृन्दावनस्य।।

श्री राधा माधव युगल के मधुरातिमधुर नित्य केलि रस का चिंतन तभी हो सकता है जब सर्वप्रथम सम्यक रूप से श्री वृन्दावन का स्वरूप हृदय में आए और यह स्वयं श्री वृन्दावन की कृपा से ही सम्भव है।

यह हित सौरभ सुवासित वाणी पुष्प रसिक समाज को आनन्दित करे यही श्रीहितमहाप्रभु के श्री चरण कमलों में प्रार्थना है। अभिलाषा है।

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