श्री भगवान नाम चिन्तन/ Shri Bhagabnnam Chintan

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भगवानका नाम भगवानका ही अभिन्न स्वरूप है और वह भगवान की ही शक्ति से भगवान से भी अधिक शक्तिशाली और ऐश्वर्यवान् है।  लोक-परलोकके जो भोग हैं, सभी दुःखयोनि और विनाशी हैं, ऐसे मधुर विषरूप विषयोंकी चाह करना और नामके बदले में उन्हें चाहना महान् मूर्खता है।

अतएव बुद्धिमान् और अपना यथार्थ कल्याण चाहनेवाले वाले पुरुष का यही कर्तव्य है कि वह अपने जीवनको भगवन्नाममय बना दे और नामके फलस्वरूप उत्तरोत्तर बढ़ती हुई नामनिष्ठाकी ही कामना करे। यही नामका आदर है और इसी भावसे नामका सेवन भी करना चाहिये।

परंतु यह स्मरण रखना चाहिये कि नामका आश्रय कलियुगमें सबसे बड़ा आश्रय है। इस एक ही आश्रयसे सर्वांगीण पूर्ण सफलता प्राप्त हो सकती है। अतएव नित्य-निरन्तर नामका सेवन करना चाहिये और जहाँतक बने नामका सेवन ‘नाम-प्रेमकी वृद्धि’ के लिये ही करना चाहिये; किसी भी लौकिक-पारलौकिक इच्छाकी पूर्तिके लिये नहीं। नामका फल अचिन्त्य और अमूल्य है। उनकी वास्तविकता पर ध्यान न देकर उसमें भरे वास्तविक सत्यको ग्रहण करना चाहिये।

     नामका जप मानसिक, उपांशु और वाचिक-तीनों तरहसे हो सकता है। नाम-जप जितनी सूक्ष्मता हो, उतना ही वह श्रेष्ठ है। पर नाम-कीर्तनमें जितना ही वाणीका स्पष्ट उच्चारण और उद्घोष हो, उतना ही श्रेष्ठ है। अपनी-अपनी स्थिति और रुचि के अनुसार जप कीर्तन करना चाहिये।

Description

भगवानका नाम भगवानका ही अभिन्न स्वरूप है और वह भगवान की ही शक्ति से भगवान से भी अधिक शक्तिशाली और ऐश्वर्यवान् है।  लोक-परलोकके जो भोग हैं, सभी दुःखयोनि और विनाशी हैं, ऐसे मधुर विषरूप विषयोंकी चाह करना और नामके बदले में उन्हें चाहना महान् मूर्खता है।

अतएव बुद्धिमान् और अपना यथार्थ कल्याण चाहनेवाले वाले पुरुष का यही कर्तव्य है कि वह अपने जीवनको भगवन्नाममय बना दे और नामके फलस्वरूप उत्तरोत्तर बढ़ती हुई नामनिष्ठाकी ही कामना करे। यही नामका आदर है और इसी भावसे नामका सेवन भी करना चाहिये।

परंतु यह स्मरण रखना चाहिये कि नामका आश्रय कलियुगमें सबसे बड़ा आश्रय है। इस एक ही आश्रयसे सर्वांगीण पूर्ण सफलता प्राप्त हो सकती है। अतएव नित्य-निरन्तर नामका सेवन करना चाहिये और जहाँतक बने नामका सेवन ‘नाम-प्रेमकी वृद्धि’ के लिये ही करना चाहिये; किसी भी लौकिक-पारलौकिक इच्छाकी पूर्तिके लिये नहीं। नामका फल अचिन्त्य और अमूल्य है। उनकी वास्तविकता पर ध्यान न देकर उसमें भरे वास्तविक सत्यको ग्रहण करना चाहिये।

     नामका जप मानसिक, उपांशु और वाचिक-तीनों तरहसे हो सकता है। नाम-जप जितनी सूक्ष्मता हो, उतना ही वह श्रेष्ठ है। पर नाम-कीर्तनमें जितना ही वाणीका स्पष्ट उच्चारण और उद्घोष हो, उतना ही श्रेष्ठ है। अपनी-अपनी स्थिति और रुचि के अनुसार जप कीर्तन करना चाहिये।

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