श्रीपंचरत्नगीता / Shree Panchratn Gita

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“श्रीपंचरत्नगीता” एक प्रसिद्ध आध्यात्मिक ग्रंथ है, जो आध्यात्मिक और नैतिक उपदेशों का संग्रह है। यह ग्रंथ अधिकतर अनुयायियों को भागवत धर्म के मार्गदर्शन के लिए उपयोगी माना जाता है। “श्रीपंचरत्नगीता” के रचयिता तुलसीदास हैं, जिन्होंने इसे भगवान राम के ध्यान, प्रेम, और भक्ति को उजागर करने के लिए लिखा था। यह ग्रंथ भक्ति और आध्यात्मिकता के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करता है और उन्हें समझाता है। श्रीपंचरत्नगीता का प्रमुख उद्देश्य भगवान राम की भक्ति में आत्मसाक्षात्कार और मुक्ति के मार्ग को समझाना है।

Description

“श्रीपंचरत्नगीता” एक प्रसिद्ध आध्यात्मिक ग्रंथ है, जो आध्यात्मिक और नैतिक उपदेशों का संग्रह है। यह ग्रंथ अधिकतर अनुयायियों को भागवत धर्म के मार्गदर्शन के लिए उपयोगी माना जाता है। “श्रीपंचरत्नगीता” के रचयिता तुलसीदास हैं, जिन्होंने इसे भगवान राम के ध्यान, प्रेम, और भक्ति को उजागर करने के लिए लिखा था। यह ग्रंथ भक्ति और आध्यात्मिकता के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करता है और उन्हें समझाता है। श्रीपंचरत्नगीता का प्रमुख उद्देश्य भगवान राम की भक्ति में आत्मसाक्षात्कार और मुक्ति के मार्ग को समझाना है।

श्रीपंचरत्नगीता 1628                                           गीताभाष्य गीता पर विभिन्न विद्वानों द्वारा लिखे भाष्यों को कहा जाता है, भगवद्गीता पर विभिन्न विद्वानों द्वारा लिखे गये प्रमुख भाष्य निम्नानुसार हैं-

गीताभाष्य – आदि शंकराचार्य
ज्ञानेश्वरी – ज्ञानेश्वर महाराज ने संस्कृत से गीता का मराठी में अनुवाद किया।
श्रीमद् भगवद् गीता यथारूप-ए सी भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद
गीतारहस्य – बालगंगाधर तिलक
अनासक्ति योग – महात्मा गांधी
गीताई – विनोबा भावे
गीता तत्व विवेचनी – जयदयाल गोयन्दका
तत्त्व संजीवनी– स्वामी रामसुखदास

1017 ईसवी सन् में रामानुज का जन्म दक्षिण भारत के तमिलनाडु प्रान्त में हुआ था। बचपन में उन्होंने कांची जाकर अपने गुरू यादव प्रकाश से वेदों की शिक्षा ली। रामानुजाचार्य आलवार सन्त यमुनाचार्य के प्रधान शिष्य थे। गुरु की इच्छानुसार रामानुज से तीन विशेष काम करने का संकल्प कराया गया था – ब्रह्मसूत्र, विष्णु सहस्रनाम और दिव्य प्रबन्धम् की टीका लिखना। उन्होंने गृहस्थ आश्रम त्याग कर श्रीरंगम् के यतिराज नामक संन्यासी से संन्यास की दीक्षा ली।

मैसूर के श्रीरंगम् से चलकर रामानुज शालिग्राम नामक स्थान पर रहने लगे। रामानुज ने उस क्षेत्र में बारह वर्ष तक वैष्णव धर्म का प्रचार किया। उसके बाद तो उन्होंने वैष्णव धर्म के प्रचार के लिये पूरे भारतवर्ष का ही भ्रमण किया। 1137 ईसवी सन् में 120 वर्ष की आयु पूर्ण कर वे व्रह्मालीन हुए।

 

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