श्रीउज्ज्वलनीलमणिः/ Ujjal Neelmanih

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भक्ति रस के संस्थापक के रूप में आचार्य रूपगोस्वामी को जाना जाता है। अपने ग्रंथ भक्तिरसामृतसिंधु और उज्ज्वलनीलमणि में भक्ति रस पर बड़े ही विस्तृत रूप से चर्चा करते हुए इसे एक स्वतंत्र रस के रूप में निरूपित किया है, स्थापित किया है। जबकि अन्य आचार्यों ने काव्यशास्त्र के अंतर्गत इसे केवल एक भाव कहा है। आचार्य रूपगोस्वामी भी देवताविषयक रति को काव्यशास्त्रियों की भाँति भाव ही मानते हैं। वे भक्ति रस के स्थायिभाव के रूप में केवल कृष्णविषयक रति को मानते हैं। उनकी दृष्टि में कृष्ण या राम देवता नहीं, बल्कि साक्षात ईश्वर हैं। अतएव वे इस रस के आलम्बन विभाव; भक्तों का समागम, तीर्थ, एकान्त पवित्र स्थल आदि उद्दीपन विभाव हैं; भगवान के नाम-संकीर्तन, लीला आदि का कीर्तन, रोमांच, गद्गद होना, अश्रु-प्रवाह, भाव-विभोर होकर नृत्य करना आदि अनुभाव हैं और मति, ईर्ष्या, वितर्क, हर्ष, दैन्य आदि व्यभिचारिभाव हैं।

रूप गोस्वामी के साथ इससे पूर्व घटी एक और घटना से भी इस बात की पुष्टि होती है कि उनकी वासना की पूर्ति के लिए स्वयं उनके इष्ट को कष्ट करना पड़ता। चैतन्य-चरितामृत में उल्लेख है कि एक बार उनके मन में वासना जागी गोपाल (श्रीनाथजी) के दर्शन करने की। गोपाल का मन्दिर गोवर्धन पर्वत के ऊपर था। गोवर्धन पर्वत पर रूप गोस्वामी चढ़ते नहीं थे, क्योंकि वे उसे साक्षात श्रीकृष्ण का विग्रह मानते थे। ऐसी स्थिति में उनकी वासना पूरी करने के लिए गोपाल को स्वयं उनके निकट आना पड़ा। उन्होंने कुछ ऐसी माया फैलायी, जिससे उनके भक्तों को उनके मन्दिर पर म्लेक्षों के आक्रमण का भय हो गया। वे उन्हें मथुरा ले गये। वहाँ विट्ठलेश्वर के घर गोपाल ने एक महीने उनकी सेवा स्वीकार की। उस बीच रूप गोस्वामी ने गोपालभट्ट भूगर्भ गोस्वामी, जीव गोस्वामी आदि अपने निज जनों के साथ मथुरा में रहकर एक मास तक उनके दर्शन किये-

तबे रूप गोसाञी सब निजजन लञा।

एकमास दर्शन कैला मथुराय रहिया॥

Description

भक्ति रस के संस्थापक के रूप में आचार्य रूपगोस्वामी को जाना जाता है। अपने ग्रंथ भक्तिरसामृतसिंधु और उज्ज्वलनीलमणि में भक्ति रस पर बड़े ही विस्तृत रूप से चर्चा करते हुए इसे एक स्वतंत्र रस के रूप में निरूपित किया है, स्थापित किया है। जबकि अन्य आचार्यों ने काव्यशास्त्र के अंतर्गत इसे केवल एक भाव कहा है। आचार्य रूपगोस्वामी भी देवताविषयक रति को काव्यशास्त्रियों की भाँति भाव ही मानते हैं। वे भक्ति रस के स्थायिभाव के रूप में केवल कृष्णविषयक रति को मानते हैं। उनकी दृष्टि में कृष्ण या राम देवता नहीं, बल्कि साक्षात ईश्वर हैं। अतएव वे इस रस के आलम्बन विभाव; भक्तों का समागम, तीर्थ, एकान्त पवित्र स्थल आदि उद्दीपन विभाव हैं; भगवान के नाम-संकीर्तन, लीला आदि का कीर्तन, रोमांच, गद्गद होना, अश्रु-प्रवाह, भाव-विभोर होकर नृत्य करना आदि अनुभाव हैं और मति, ईर्ष्या, वितर्क, हर्ष, दैन्य आदि व्यभिचारिभाव हैं।

रूप गोस्वामी के साथ इससे पूर्व घटी एक और घटना से भी इस बात की पुष्टि होती है कि उनकी वासना की पूर्ति के लिए स्वयं उनके इष्ट को कष्ट करना पड़ता। चैतन्य-चरितामृत में उल्लेख है कि एक बार उनके मन में वासना जागी गोपाल (श्रीनाथजी) के दर्शन करने की। गोपाल का मन्दिर गोवर्धन पर्वत के ऊपर था। गोवर्धन पर्वत पर रूप गोस्वामी चढ़ते नहीं थे, क्योंकि वे उसे साक्षात श्रीकृष्ण का विग्रह मानते थे। ऐसी स्थिति में उनकी वासना पूरी करने के लिए गोपाल को स्वयं उनके निकट आना पड़ा। उन्होंने कुछ ऐसी माया फैलायी, जिससे उनके भक्तों को उनके मन्दिर पर म्लेक्षों के आक्रमण का भय हो गया। वे उन्हें मथुरा ले गये। वहाँ विट्ठलेश्वर के घर गोपाल ने एक महीने उनकी सेवा स्वीकार की। उस बीच रूप गोस्वामी ने गोपालभट्ट भूगर्भ गोस्वामी, जीव गोस्वामी आदि अपने निज जनों के साथ मथुरा में रहकर एक मास तक उनके दर्शन किये-

तबे रूप गोसाञी सब निजजन लञा।

एकमास दर्शन कैला मथुराय रहिया॥

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