•  "संध्या, संध्या-गायत्री का महत्व और ब्रह्मचर्य" का वर्णन 


    🌅 संध्या क्या है?

    संध्या का शाब्दिक अर्थ है — संधिकाल अर्थात दिन और रात के मिलन का समय।
    प्रत्येक दिन में तीन संधिकाल होते हैं:

    1. प्रातः संध्या (सूर्योदय से पूर्व)

    2. मध्याह्न संध्या (दोपहर का समय)

    3. सायं संध्या (सूर्यास्त का समय)

    🔆 ये काल अत्यंत पवित्र माने गए हैं, क्योंकि इन समयों में प्रकृति शांत और दिव्यता से युक्त होती है। यही समय ईश्वर-स्मरण, जप और ध्यान के लिए श्रेष्ठ माना गया है।


    🪔 संध्या-गायत्री का महत्व

    गायत्री मंत्र वेदों का सार है —

    "ॐ भूर्भुवः स्वः ।
    तत्सवितुर्वरेण्यं ।
    भर्गो देवस्य धीमहि ।
    धियो यो नः प्रचोदयात् ॥"

    🧘‍♂️ यह मंत्र सविता (सूर्य देवता) की उपासना है। इसका जप संध्या के समय करने से —

    • मन शुद्ध होता है

    • बुद्धि में सतोगुण की वृद्धि होती है

    • आत्मबल और विवेक जाग्रत होता है

    • पापों का क्षय होता है

    • ब्रह्मविद्या की प्राप्ति का मार्ग खुलता है

    🎇 गायत्री मंत्र को 'ब्रह्मविद्या' और 'मंत्रों की जननी' कहा गया है।
    भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है:

    "गायत्री च्छन्दसामहम्।" (श्रीमद्भगवद्गीता 10.35)


    🌟 ब्रह्मचर्य का महत्व

    ‘ब्रह्मचर्य’ का अर्थ केवल शारीरिक संयम नहीं, बल्कि इन्द्रिय-निग्रह, विचार-शुद्धि और ईश्वर में स्थित रहने का अभ्यास है।

    🔹 ब्रह्मचर्य पालन से लाभ:

    • शरीर बलवान होता है

    • मन स्थिर और बुद्धि तेज होती है

    • स्मरण शक्ति और आत्मविश्वास बढ़ता है

    • साधना में प्रगति होती है

    • आत्मज्ञान की प्राप्ति में सहायक होता है

    🧘‍♂️ महर्षि पतंजलि ने कहा है —

    "ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठायां वीर्यलाभः॥"
    (अष्टांगयोग, योगसूत्र 2.38)
    "जब ब्रह्मचर्य पूर्ण रूप से स्थिर हो जाता है, तब अपूर्व तेजस्विता की प्राप्ति होती है।"


    👉 संध्या आत्मा का स्नान है।
    👉 गायत्री मंत्र आत्मा का भोजन है।
    👉 ब्रह्मचर्य आत्मा की रक्षा है।

    जो व्यक्ति इन तीनों को जीवन में अपनाता है, वह आध्यात्मिक मार्ग पर अभ्युदय (सर्वांगीण उन्नति) और निःश्रेयस (मोक्ष) दोनों को प्राप्त करता है।

  • यह पुस्तक स्वामी रामसुखदास द्वारा लिखी गई है। यह पुस्तक बाध्यकारी पेपरबैक है। पुस्तक प्रकाशक गीता प्रेस-गोरखपुर है। प्रथम संस्करण पुस्तक। इस पुस्तक के पृष्ठों की संख्या 192 है। यह पुस्तक हिन्दी भाषा में लिखी गई है। यह एक धार्मिक ग्रंथ है।
    इस पुस्तक में स्वामी श्री रामसुखदास जी के प्रवचनों का एक अनुपम संग्रह है।
  • "संत वाणी" (श्री डोंगरेजी महाराज द्वारा)

    "संत वाणी" परम पूज्य श्री रमेशभाई डोंगरेजी महाराज द्वारा रचित एक महत्वपूर्ण आध्यात्मिक ग्रंथ है। यह पुस्तक विभिन्न संत महात्माओं की शिक्षाओं, उपदेशों और भक्ति मार्ग के गूढ़ रहस्यों का संकलन है। इसमें भक्ति, धर्म, ज्ञान और आत्म-साक्षात्कार के विषय में अमूल्य विचार प्रस्तुत किए गए हैं, जो जीवन को सही दिशा देने में सहायक हैं।

    "Sant Vani" by Shri Dongreji Maharaj

    "Sant Vani" is a revered spiritual book written by Shri Rameshbhai Dongreji Maharaj, a highly respected saint and scholar of Hindu philosophy. The book is a compilation of the divine teachings, wisdom, and discourses of various Sant Mahatmas (saints) from different spiritual traditions of India. It serves as a guide for devotees, offering deep insights into Bhakti (devotion), Dharma (righteousness), and Jnana (spiritual wisdom).

  • संत-दर्शन’ पुस्तक भारतीय संत परंपरा का एक अमूल्य संग्रह है, जिसमें विभिन्न युगों के महान संतों, साधकों और भक्तों के जीवन, शिक्षाओं और उनके योगदान का वर्णन किया गया है। इस पुस्तक में उन संतों के चित्र और उनके जीवन की झलकियाँ दी गई हैं जिन्होंने भारतवर्ष की आध्यात्मिक चेतना को जागृत किया और समाज में नैतिकता, प्रेम, करुणा तथा भक्ति का संदेश फैलाया।

    हनुमानप्रसाद पोद्दार जी के संपादन में प्रस्तुत यह ग्रंथ न केवल आध्यात्मिक साधकों के लिए उपयोगी है, बल्कि यह भारत की सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत को समझने के लिए एक उत्कृष्ट स्रोत भी है। इसमें कबीर, तुलसीदास, गुरु नानक, मीराबाई, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद जैसे अनेक संतों के जीवन दर्शन को सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया गया है।

    इस पुस्तक की विशेषता यह है कि यह पाठकों को विभिन्न संत परंपराओं – भक्ति मार्ग, ज्ञान मार्ग, योग मार्ग – आदि के संतों की विविधता और उनकी आध्यात्मिक साधनाओं से परिचित कराती है। यह पुस्तक संतों के विचारों और उपदेशों के माध्यम से मनुष्य को आत्मिक उन्नति की ओर प्रेरित करती है।

    मुख्य विशेषताएँ:

    1. संतों की विविधता:
      यह ग्रंथ भारत की महान संत परंपरा की विविधता को दर्शाता है। इसमें शैव, वैष्णव, शाक्त, सिख, जैन, बौद्ध तथा निर्गुण भक्ति के अनेक संतों का वर्णन किया गया है। कबीर, तुलसीदास, गुरु नानक, रविदास, दादूदयाल, नामदेव, मीराबाई, चैतन्य महाप्रभु, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, समर्थ रामदास, ज्ञानेश्वर, तुकाराम आदि संतों के जीवन प्रसंग और संदेश इसमें समाहित हैं।

    2. आध्यात्मिक दिशा और प्रेरणा:
      यह पुस्तक आत्मा की खोज, ईश्वर प्रेम, सेवा, तपस्या, त्याग, वैराग्य, भक्ति और मुक्ति जैसे गूढ़ विषयों को सहज रूप से प्रस्तुत करती है। यह पाठकों को न केवल आध्यात्मिक दृष्टि देती है, बल्कि एक शुद्ध और पवित्र जीवन जीने की प्रेरणा भी देती है।

    3. चित्र और दृश्यात्मक सौंदर्य:
      पुस्तक के मुखपृष्ठ पर संतों की एक लहर सी दिखाई देती है जो प्रकाश की ओर अग्रसर हो रही है — यह दृश्य न केवल कलात्मक है बल्कि यह दर्शाता है कि संत समाज को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाले दीपक हैं।

    4. सामाजिक जागृति:
      संतों ने केवल आत्मकल्याण का मार्ग नहीं दिखाया, बल्कि समाज सुधार, छुआछूत मिटाने, जातिवाद का विरोध, प्रेम और भाईचारे की भावना को जगाने का कार्य भी किया। इस पुस्तक में उन संतों का विशेष वर्णन है जिन्होंने सामाजिक चेतना फैलाने का कार्य किया।

    5. सरल भाषा, गहरी बात:
      यह पुस्तक संस्कृतनिष्ठ नहीं है, बल्कि इसमें भक्तिभाव से ओतप्रोत सरल और भावपूर्ण हिंदी भाषा का प्रयोग किया गया है, जिससे यह जनसामान्य के लिए भी सहज रूप से ग्राह्य हो जाती है।


    संतों का उद्देश्य और योगदान

    • संतों ने मानव को आत्मा और परमात्मा के संबंध का बोध कराया।

    • जीवन की क्षणभंगुरता का स्मरण कराते हुए सच्चे सुख की खोज भीतर करने को कहा।

    • अहंकार, मोह, माया और क्रोध से मुक्त होकर सेवा, त्याग और प्रेम के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी।

    • भक्ति मार्ग के साथ-साथ कर्म और ज्ञान के समन्वय पर भी बल दिया।


    उद्देश्य और उपयोगिता:

    ‘संत-दर्शन’ का मुख्य उद्देश्य है –

    • संतों के माध्यम से पाठकों के भीतर आत्मिक चेतना जगाना।

    • पाठकों को सच्चे आध्यात्मिक मार्ग की ओर प्रेरित करना।

    • समाज को आध्यात्मिक, नैतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से उन्नत बनाना।

    • भारत की गौरवशाली संत परंपरा को जन-जन तक पहुँचाना।

    यह पुस्तक धार्मिक, सामाजिक, और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से अत्यंत मूल्यवान है। इसे हर आयु वर्ग के पाठकों को पढ़ना चाहिए — विशेषकर युवाओं को, ताकि वे जीवन की दिशा को सही रूप से समझ सकें।


    निष्कर्ष:

    ‘संत-दर्शन’ केवल संतों के जीवन का परिचय नहीं है, यह एक जीवन-दर्शन है। इसमें छिपी शिक्षाएँ और प्रेरणाएँ आज के भटके हुए मानव के लिए एक प्रकाशस्तंभ के समान हैं। हनुमानप्रसाद पोद्दार जी द्वारा संकलित यह ग्रंथ भारतीय अध्यात्म का सार प्रस्तुत करता है, और यह हर उस व्यक्ति के लिए उपयोगी है जो सच्चे ज्ञान, भक्ति और शांति की खोज में है।

  • सचित्र महाभारत  

    1. चित्रमय प्रस्तुति – यह पारंपरिक पाठ्य संस्करण से अलग होती है क्योंकि इसमें महाभारत के महत्वपूर्ण प्रसंगों को चित्रों के साथ दिखाया जाता है।

    2. प्रमुख घटनाओं का चित्रण – इसमें कुरुक्षेत्र युद्ध, भगवद गीता, द्रौपदी चीरहरण, अभिमन्यु का पराक्रम, भीष्म की प्रतिज्ञा आदि को सुंदर चित्रों के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है।

    3. महाभारत के पात्रों का जीवंत चित्रणश्रीकृष्ण, अर्जुन, कर्ण, भीष्म, दुर्योधन आदि महापुरुषों के चरित्र और उनकी महत्वपूर्ण घटनाओं को चित्रों के साथ दिखाया जाता है।

    4. शास्त्रीय एवं आधुनिक चित्रण शैली – कुछ संस्करणों में पारंपरिक भारतीय लघुचित्र (Miniature Paintings) शैली का उपयोग किया गया है, जबकि कुछ में आधुनिक डिजिटल चित्रण या कॉमिक शैली को अपनाया गया है।

    5. सभी आयु वर्ग के लिए उपयुक्त – चित्रों की सहायता से यह संस्करण बच्चों, युवाओं और आम पाठकों के लिए अधिक रोचक और समझने में आसान बन जाता है।

    6. प्रकाशित संस्करणगीताप्रेस गोरखपुर, अमर चित्र कथा, और कई अन्य प्रकाशकों ने सचित्र महाभारत के अपने-अपने संस्करण प्रकाशित किए हैं।

    निष्कर्ष

    सचित्र महाभारत महाकाव्य को देखने और समझने का एक अनूठा और आकर्षक तरीका प्रदान करता है। यदि आप महाभारत को पढ़ने के साथ-साथ चित्रों के माध्यम से भी अनुभव करना चाहते हैं, तो यह संस्करण एक उत्तम विकल्प हो सकता है।

    क्या आप किसी विशेष प्रकाशक या संस्करण की जानकारी चाहते हैं

  • षट्चक्र-निरुपणम एक महत्वपूर्ण योग-ग्रंथ है, जो तंत्र और कुंडलिनी योग पर आधारित है। यह ग्रंथ विशेष रूप से चक्रों (ऊर्जा केंद्रों) का विवरण प्रदान करता है और यह समझाने का प्रयास करता है कि मानव शरीर में विभिन्न चक्र कैसे कार्य करते हैं और उन्हें जागृत करने के क्या लाभ हैं।

    मुख्य विषयवस्तु

    यह ग्रंथ सप्तचक्रों (सात चक्रों) की व्याख्या करता है, जो शरीर में स्थित सूक्ष्म ऊर्जा केंद्र माने जाते हैं। ये चक्र हैं:

    1. मूलाधार चक्र – रीढ़ की हड्डी के निचले भाग में स्थित होता है और स्थायित्व व जड़ता का प्रतीक है।
    2. स्वाधिष्ठान चक्र – नाभि के नीचे स्थित होता है और रचनात्मकता तथा इच्छाशक्ति से जुड़ा होता है।
    3. मणिपुर चक्र – नाभि क्षेत्र में स्थित होता है और शक्ति, आत्मविश्वास तथा इच्छाशक्ति को नियंत्रित करता है।
    4. अनाहत चक्र – हृदय क्षेत्र में स्थित होता है और प्रेम, करुणा तथा भावनाओं का केंद्र माना जाता है।
    5. विशुद्धि चक्र – गले में स्थित होता है और संचार, सत्य और अभिव्यक्ति से संबंधित होता है।
    6. आज्ञा चक्र – भौहों के बीच स्थित होता है और अंतर्ज्ञान तथा आध्यात्मिक दृष्टि का केंद्र होता है।
    7. सहस्रार चक्र – सिर के ऊपर स्थित होता है और परम चेतना एवं आत्मज्ञान से जुड़ा होता है।
  • "श्रीरामचंद्र की वाणी" का अर्थ है भगवान श्रीराम द्वारा कही गई बातें, उपदेश या संवाद, जो उन्होंने अपने जीवन के विभिन्न प्रसंगों में दिए। श्रीरामचंद्र जी की वाणी मर्यादा, धर्म, संयम, और आदर्श जीवन के लिए प्रेरणा देती है। उनके वचनों में सत्य, कर्तव्य और करुणा की गहराई होती है।

    नीचे श्रीरामचंद्र की वाणी का एक संक्षिप्त वर्णन (description) हिंदी में दिया गया है:


    "श्रीरामचंद्र की वाणी" का वर्णन (Description in Hindi):

    श्रीरामचंद्र की वाणी शीतल, मधुर, मर्यादित और धर्मप्रधान होती थी। वे सदैव सत्य बोलने वाले, सबको सम्मान देने वाले और धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देने वाले पुरुषोत्तम थे। उनकी वाणी में ऐसा सामर्थ्य था कि शत्रु भी उनका आदर करते थे।

    जब उन्होंने वनवास स्वीकार किया, तब उन्होंने बिना किसी क्रोध या दुख के अपने माता-पिता और प्रजाजनों को सांत्वना दी — यह उनके धैर्य और त्याग की वाणी का प्रमाण था। उन्होंने कहा:

    "पिता की आज्ञा धर्म है, उसे निभाना मेरा कर्तव्य है।"

    वह अपनी वाणी से शबरी को सम्मान देते हैं, हनुमान को गले लगाते हैं और विभीषण को आश्रय देते हैं। वे कहते हैं:

    "जो शरण में आये, उसका त्याग नहीं करना चाहिए, चाहे वह शत्रु ही क्यों न हो।"

    उनकी वाणी में कोई छल-कपट नहीं था, और वे हर परिस्थिति में न्याय और करुणा का पालन करते थे। उनके मुख से निकला हर शब्द मानव धर्म के लिए आदर्श है।

  • "श्रीरामकृष्ण वचनामृत – प्रसंग: चतुर्थ भाग" एक अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ है जो श्रीरामकृष्ण परमहंस के उपदेशों, शिक्षाओं और उनके भक्तों के साथ हुए संवादों का संग्रह है। यह ग्रंथ महेंद्रनाथ गुप्त (म. / "मास्टर महाशय") द्वारा लिखित है, जिन्होंने इन प्रसंगों को प्रत्यक्ष रूप से सुना और लिपिबद्ध किया। इसे बांग्ला में “कठामृत” कहा जाता है, और हिंदी में इसका अनुवाद "वचनामृत" के रूप में किया गया है।


    🔹 वचनामृत – प्रसंग चतुर्थ भाग (संक्षिप्त विवरण हिंदी में):

    चतुर्थ भाग में श्रीरामकृष्ण के जीवन के बाद के चरणों के उपदेश शामिल हैं, जब उनका शरीर रोगग्रस्त था, किंतु आत्मा और उपदेशों की शक्ति पहले से भी अधिक प्रखर हो चुकी थी।

    इस भाग में:

    • ईश्वर के नाम की महिमा,

    • भक्ति और ज्ञान के अंतर,

    • गृहस्थ और सन्यासी के धर्म,

    • आत्मज्ञान की व्याख्या,

    • भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण,

    • शुद्ध प्रेम और निष्काम सेवा,
      जैसे विषयों पर अत्यंत सरल, लेकिन गहराई से भरे संवाद मिलते हैं।


    🌿 मुख्य विशेषताएँ:

    1. भाषा शैली: यह भाग भी श्रीरामकृष्ण की सरल, लोकबोली जैसी भाषा में है – जो सीधे हृदय को स्पर्श करती है।

    2. संवाद शैली: इसमें विभिन्न भक्तों (जैसे नरेंद्रनाथ – जो आगे चलकर स्वामी विवेकानंद बने), विद्वानों और सामान्य जनों से हुए संवाद हैं।

    3. प्रेरक प्रसंग: कई ऐसे प्रसंग हैं जो श्रीरामकृष्ण की दिव्यता और उनके आध्यात्मिक दृष्टिकोण को दर्शाते हैं।

    4. आध्यात्मिक गहराई: यह भाग सांसारिक मोह से मुक्ति, ईश्वर प्राप्ति की व्यावहारिक विधियों, और गुरु-भक्ति की पराकाष्ठा को स्पष्ट करता है।


  •  – "श्रीरामकृष्ण")

    • "श्री" — यह एक सम्मानसूचक शब्द है, जो दिव्यता, पवित्रता और आदर को दर्शाता है।

    • "रामकृष्ण" — यह नाम दो महान भगवानों का संगम है:

      • "राम" — मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम, जो धर्म, त्याग और आदर्श जीवन का प्रतीक हैं।

      • "कृष्ण" — भगवान कृष्ण, जो प्रेम, करुणा और दिव्य लीलाओं के लिए प्रसिद्ध हैं।

    👉 इस प्रकार, "रामकृष्ण" नाम स्वयं में ही भक्ति और ज्ञान का समन्वय है। यह नाम उच्च आध्यात्मिक ऊर्जा से युक्त है, और इसका जप करने मात्र से मन शांत और पवित्र होता है।


    2. रूप (रूप – श्रीरामकृष्ण का दिव्य स्वरूप)

    • भौतिक रूप: श्रीरामकृष्ण परमहंस का शरीर दुबला-पतला, शांत और तेजस्वी था। वे सामान्यतः एक सादा धोती पहनते थे और उनका चेहरा करुणा एवं दिव्यता से ओतप्रोत रहता था।

    • आध्यात्मिक रूप:

      • उनका रूप भक्तों के लिए ईश्वर का मूर्त स्वरूप था।

      • वे सभी धार्मिक पंथों का अनुभव कर चुके थे – भक्ति, ज्ञान, योग, तंत्र आदि।

      • उनका मुखारविंद सदैव आनंदमय, मधुर और आत्मिक शांति से भरा हुआ था।

    👉 उनका रूप देखकर ही भक्तों के हृदय में शुद्धता, श्रद्धा और भक्ति का संचार होता था।


    3. "नाम तथा रूप" की भक्ति परंपरा में महत्ता

    नाम और रूप भक्ति परंपरा में यह दोनों ही ईश्वर के साक्षात स्वरूप माने जाते हैं।

    • नाम जपश्रीरामकृष्ण के नाम का जप करने से मन में भक्ति, शांति और दिव्यता का अनुभव होता है।

    • रूप ध्यान — उनके दिव्य स्वरूप का ध्यान करने से साधक को आत्मिक उन्नति मिलती है।

    "श्रीरामकृष्ण — नाम तथा रूप" का अर्थ है —
    👉 उनका नाम जपना और स्वरूप का ध्यान करना, दोनों ही आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाते हैं।

    The phrase "Sri Ramakrishna Naam tatha Roop" refers to the Name (Naam) and Form (Roop) of Sri Ramakrishna Paramahamsa, a 19th-century Indian saint and mystic who played a key role in the modern revival of Hinduism and was the spiritual guru of Swami Vivekananda.

    Let’s break it down by description:


    1. Naam (Name) – “Sri Ramakrishna”

    • "Sri": A respectful honorific in Sanskrit, denoting reverence and divinity.

    • "Ramakrishna": His given name; symbolically rich:

      • "Rama": A name of God, especially Lord Vishnu’s avatar in the Ramayana.

      • "Krishna": Another major avatar of Vishnu, known for divine play (leela) and love.

    • The name itself fuses two central deities of Hinduism, indicating a synthesis of divine qualities—righteousness, compassion, wisdom, and bliss.


    2. Roop (Form) – The Divine Appearance of Sri Ramakrishna

    • Physical form: Sri Ramakrishna was a slender, humble, ascetic man, often seen clad in a simple cloth, radiating a peaceful and divine aura.

    • Spiritual Form: To devotees, his form is not just physical—it is symbolic of:

      • Divine purity and renunciation

      • Motherly compassion (he often saw the Divine Mother in all beings)

      • Embodiment of multiple spiritual paths—Bhakti, Jnana, Karma, Tantra, and others


    Philosophical Meaning of “Naam tatha Roop” in Bhakti Traditions

    In devotional (Bhakti) traditions, Naam (Name) and Roop (Form) are considered not separate from the Divine. Chanting the holy name (Naam) and meditating on the divine form (Roop) are powerful practices to realize God.

    So, when someone says Sri Ramakrishna Naam tatha Roop,” they mean:

    • Chanting His name is a spiritual act.

    • Visualizing or meditating on His form brings spiritual transformation.

    • Both are considered divine in themselves—not just representations, but embodiments of the Divine

  • श्रीरामकृष्ण परमहंस – संक्षिप्त जीवनी

    श्रीरामकृष्ण परमहंस (1836–1886) एक महान भारतीय संत और आध्यात्मिक गुरु थे। उनका जन्म बंगाल के कामारपुकुर नामक गाँव में हुआ था। बचपन से ही वे ईश्वर के प्रति अत्यंत भावुक और भक्ति से भरे हुए थे। किशोरावस्था में वे दक्षिणेश्वर काली मंदिर में पुजारी बने, जहाँ उन्होंने मां काली के साक्षात् अनुभव किए।

    श्रीरामकृष्ण ने विभिन्न धार्मिक मार्गों — हिन्दू, इस्लाम और ईसाई धर्म — का अभ्यास किया और यह अनुभव किया कि सभी रास्ते एक ही सत्य की ओर ले जाते हैं। उनका जीवन सरलता, निष्काम भक्ति और जीवमात्र में ईश्वर-दर्शन का आदर्श उदाहरण था। उनके प्रमुख शिष्य स्वामी विवेकानंद ने उनके संदेशों को पूरी दुनिया में फैलाया।

    श्रीरामकृष्ण के मुख्य उपदेश

    1. ईश्वर सर्वत्र है: हर प्राणी में ईश्वर का वास है। प्रेम और सेवा के माध्यम से ईश्वर की पूजा करनी चाहिए।

    2. सभी धर्म सत्य हैं: विभिन्न धर्म केवल सत्य तक पहुँचने के विभिन्न मार्ग हैं। किसी भी धर्म का अपमान नहीं करना चाहिए।

    3. ईश्वर की प्राप्ति ही जीवन का लक्ष्य है: सांसारिक सुख क्षणिक है, लेकिन ईश्वर-साक्षात्कार स्थायी शांति देता है।

    4. भक्ति, ज्ञान और कर्म – सभी साधन श्रेष्ठ हैं: अलग-अलग प्रकृति के लोग भिन्न-भिन्न मार्गों द्वारा ईश्वर तक पहुँच सकते हैं।

    5. निर्दोष सरलता और निष्कपटता: आध्यात्मिक जीवन में छल, कपट और अहंकार त्यागना चाहिए।

    6. सच्चा गुरु आवश्यक है: ईश्वर की प्राप्ति के लिए सच्चे गुरु का मार्गदर्शन अनिवार्य है

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    "श्रीमद्भगवद्गीता मूलम्" (Shrimad Bhagavad Gita Moolam) का अर्थ होता है — "श्रीमद्भगवद्गीता का मूल रूप"
    यह ग्रंथ महाभारत के भीष्म पर्व का एक हिस्सा है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्धभूमि में उपदेश दिया था।

    संक्षिप्त विवरण हिंदी में:

    श्रीमद्भगवद्गीता सनातन धर्म का अत्यंत पवित्र और प्रेरणादायक ग्रंथ है। इसमें 700 श्लोक हैं, जो जीवन, कर्म, धर्म, भक्ति, ज्ञान और मोक्ष के गहन रहस्यों को उजागर करते हैं।
    अर्जुन जब कुरुक्षेत्र के युद्धभूमि में मोहग्रस्त होकर शस्त्र छोड़ बैठते हैं, तब भगवान श्रीकृष्ण उन्हें जीवन का असली उद्देश्य, आत्मा की अमरता, और निष्काम कर्म का उपदेश देते हैं।

    मुख्य विषय:

    • कर्मयोग (कर्म करते हुए फल की इच्छा न करना)

    • ज्ञानयोग (आत्मा व परमात्मा का ज्ञान)

    • भक्ति योग (ईश्वर में पूर्ण समर्पण)

    • अध्यात्म और प्रकृति का भेद

    • आत्मा की अमरता और पुनर्जन्म का सिद्धांत

    • धर्म के प्रति कर्तव्य

    "मूलम्" शब्द का अर्थ है "मूल श्लोक" — यानी संस्कृत के शुद्ध श्लोक बिना किसी टीका (व्याख्या) या भाष्य (टिप्पणी) के।
    "श्रीमद्भगवद्गीता मूलम्" ग्रंथ में केवल भगवद्गीता के संस्कृत श्लोक दिए होते हैं, जिनमें भगवान श्रीकृष्ण की दिव्य वाणी मूल रूप में संकलित है।