दृग-दृश्य-विवेक (Drig-Drishya-Viveka) एक प्रसिद्ध वेदांतिक ग्रंथ है, जिसे श्री आदि शंकराचार्य या उनके किसी शिष्य द्वारा रचित माना जाता है। यह ग्रंथ अद्वैत वेदांत के महत्वपूर्ण सिद्धांतों की व्याख्या करता है और आत्मा (दृग) तथा दृश्य जगत (दृश्य) के बीच भेद को स्पष्ट करता है।
दृग-दृश्य-विवेक
इस ग्रंथ का मुख्य उद्देश्य यह समझाना है कि
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दृग (द्रष्टा) और दृश्य (जो देखा जाता है) अलग हैं –
उदाहरण के लिए, आँखें बाहरी वस्तुओं को देखती हैं, लेकिन आँखें स्वयं चित्त (मन) द्वारा जानी जाती हैं।
मन भी एक दृष्ट वस्तु है, जिसे आत्मा के प्रकाश में देखा जाता है। -
अंततः, केवल आत्मा ही शुद्ध द्रष्टा (साक्षी) है –
आत्मा स्वयं किसी के द्वारा देखी नहीं जा सकती, बल्कि वह स्वयं सर्वज्ञानी और स्वयंप्रकाशित है। -
माया और ब्रह्म के भेद को समझना –
दृश्य जगत परिवर्तनशील और नश्वर है, जबकि आत्मा नित्य, शुद्ध और अविनाशी है।
जब साधक "नेति-नेति" (यह नहीं, वह नहीं) के माध्यम से भौतिक जगत को मिथ्या समझता है, तब वह अपनी वास्तविक प्रकृति (सच्चिदानंद स्वरूप) को पहचानता है।
मुख्य शिक्षाएँ:
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स्थूल (भौतिक) जगत अस्थायी है, जबकि आत्मा नित्य और शाश्वत है।
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स्वयं को शुद्ध चैतन्य (आत्मा) के रूप में जानना ही मोक्ष का मार्ग है।
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ज्ञानयोग के अभ्यास से आत्म-साक्षात्कार संभव है।
यह ग्रंथ ध्यान और आत्मनिरीक्षण के माध्यम से अद्वैत वेदांत को समझने के लिए एक प्रभावशाली साधन है।