श्री सेवकजी एवं श्री ध्रुवदासजी राधावल्लभ सम्प्रदाय के आरम्भ के ऐसे दो रसिक महानुभाव हैं, जिन्होंने श्री हिताचार्य की रचनाओं के आधार पर इस सम्प्रदाय के सिद्धान्तों को सुस्पष्ट रूप-रेखा प्रदान की थी | सम्प्रदाय के प्रेम-सिद्धान्त और रस पद्धति के निर्माण में श्री ध्रुवदासजी का योगदान अत्यन्त महतवपूर्ण है |
ध्रुवदासजी देवबंद, जिला सहारनपुर के रहने वाले थे | इनका जन्म वहाँ के एक ऐसे कायस्थ कुल में हुआ था, जो आरम्भ से ही श्री हिताचार्य के सम्पर्क में आ गया था और उनका कृपा भाजन बन गया था | इनका जन्म सं. १६२२ माना जाता है इनके पिता श्यामदास जी श्री हितप्रभु के शिष्य थे ओर ये स्वयं उनके तृतीय पुत्र श्री गोपीनाथ गोस्वामी के कृपापात्र थे | इसी से इनके चरित्रकार महात्मा भगवत मुदितजी ने इनको ‘परम्पराइ अनन्य उपासी’ लिखा है |
श्री हरिवंश कृपा से अल्प वय में ही गृहस्थ से विरक्त होकर ये वृन्दावन में वास करने लगे थे | आरम्भ से इनका एक ही मनोरथ था कि मैं कृपाभिसिक्त वाणी से प्रेम-स्वरूप श्री श्यामा-श्याम के अद्भुत, अखंड प्रेम-विहार का वर्णन करूँ | किन्तु ह्रदय में नित्य विहार का प्रकाश हो जाने पर भी वह वाणी में प्रस्फुटित नहीं हो रहा था | निरुपाय होकर इन्होंने अन्न-जल त्याग दिया और श्री हिताचार्य द्वारा स्थापित रास-मंडल पर जाकर पड़ गये | दो दिन तक ध्रुवदास जी वहाँ पड़े रहकर अजस्र अश्रुपात करते रहे | इनकी इस करुण स्थिति को देख कर श्री राधा का कोमल ह्रदय विगलित हो उठा और उन्होंने तीसरे दिन मध्य रात्रि में प्रकट होकर अपने चरण-कमल का स्पर्श ध्रुवदास जी के मस्तक से करा दिया | चरण का आघात होते ही उसमें धारण किये हुए नूपुर बज उठे ओर उनकी दिव्य ध्वनि ध्रुवदासजी के तन-मन में पूरित हो गयी | इसके साथ ही इनको यह शब्द सुनाई दिये —
वाणी भई जु चाहत कियो |
उठि सो वर तोकौं सब दियौ |
कृतज्ञता के पूर्ण अनुभव के साथ धुर्वदासजी ने वृन्दावन विहारी श्री श्यामा-श्याम की नित्य-लीला का गान मुक्तकंठ से आरम्भ कर दिया और एक ऐसी अद्भुत प्रभाववाली वाणी की रचना हो गयी जो उनके चरित्रकार के अनुसार, थोड़े ही दिनों में चारों दिशाओं में प्रचलित हो गयी ओर रसिक जन उसका अनुशीलन अपनी परम निधि मानकर करने लगे | इस वाणी के प्रभाव से अनेक लोग घरबार छोड़कर वृन्दावन मे बास करने लगे | श्री भगवतमुदित ने लिखा है —
वाणी श्री ध्रुवदास की, सुनि जोरी मुसिकात |
भवगत् अद्भुत रीति कछु, भाव-भावना पाँति ||
ध्रुवदासजी से पूर्व एवं उनके समकालीन प्राय: सभी श्री राधा-कृष्णोपासक महानुभावों ने फुटकर पदों में लीला-गान किया था | ये पद अपने आप में पूर्ण होते हैं, किन्तु उनमें लीला के किसी एक अंग की ही पूर्णता होती है, अन्य अंगो की अभिव्यक्ति के लिए दुसरे पदों की रचना करनी होती है | ध्रुवदासजी ने नित्य-विहार-लीला को एक अखण्ड धारा बताया है —
नित्य विहार आखंडित धारा |
एक वैस रस जुगल विहारा ||
इसकी धारावाहिकता का निर्वाह करने के लिए ध्रुवदासजी ने पद शैली का आश्रय न लेकर दोहा-चौपाइयों में लीला वर्णन किया है | इनसे पूर्व केवल प्रबन्ध-काव्यों में दोहा-चौपाइयों का उपयोग किया जाता था | ध्रुवदासजी ने पहली बार लीला वर्णन में इसका उपयोग किया ओर बड़ी सफलतापूर्वक किया | इनकी लीलाओं में प्रेम की विभिन्न दशायें समुद्र में तरंगो की भाँति उन्मंजन-निमंजन करती रहती हैं, जिससे लीला की अखंडता की सहज व्यंजना होती चलती है |
श्री राधा-कृष्ण को रस-स्वरूप किंवा प्रेम-स्वरूप माना जाता है | प्रेम एक भाव है, अत: ये दोनों भाव सवरूप हैं | श्री हिताचार्य के सिद्धान्त में हित किंवा प्रेम ही परात्पर तत्व है, जो एक साथ मूर्त ओर अमूर्त दोनों हैं | हित के सहज मूर्तरूप श्री राधा-कृष्ण हैं | इनके श्री अंग तथा इनसे सम्बंधित धाम, वस्त्राभूषण आदि सम्पूर्ण वस्तुएँ प्रेम का ही विभिन्न मूर्त परिणतियाँ हैं | उनमें प्रेम भाव के अतिरिक्त अन्य किसी भाव या अन्य किसी तत्व का स्पर्श नहीं है | जब ह्रदय में परात्पर प्रेम का एक कण उद्भासित तो कुछ अत्यन्त विरल महाभाग्यशाली उपासकों को छोड़कर, वह एक अमूर्त भावानुभूति किंवा स्फूर्ति के रूप में होता है | उपासक का प्रथम परिचय इस कृपोपलब्ध अमूर्त भाव के साथ होता है | और फिर वह रसिकाचार्यों की वाणियों के सहारे श्री श्यामा-श्याम के मूर्त प्रेम-स्वरूप को ह्रदयंगम करने की चेष्टा करता है | अन्य सब वाणियों की तुलना में ध्रुवदासजी की वाणी उपासक की अमूर्त भाव से मूर्त भाव तक की यात्रा में सबसे अधिक सहायक बनती है | सामान्यतया अमूर्त को मूर्त की सहायता से समझाया जाता है | ध्रुवदासजी मूर्त प्रेम ( श्री श्यामा-श्याम ) की अमूर्त प्रेम के साथ तुलना करके उसको स्पष्ट करने की चेष्टा करते हैं |
उदाहरण के लिए श्री श्यामा-श्याम के सुन्दर भालों पर लगी हुई लाल और काली बिंदियों की शोभा का वर्णन करते हुए ये कहते हैं कि दोनों भालों पर दोनों रंग की अनुपम बिंदियाँ इस प्रकार सुशोभित हैं, जैसे अनुराग और श्रृंगार की मूर्त जोड़ी बनी हो | इसी प्रकार श्री राधा के वक्षस्थल पर धारण की हुई मोतियों की माला आदि को देखकर ये कहते है कि ऐसा प्रतीत हो रहा है मानों अनुराग के सरोवर में रूप की तरंग उठ रही है –
विवि भालन विवि वरन की, बेंदी दई अनूप |
मनु अनुराग सिंगार की, जोरी बनो सरूप ||
जलज हार हीरावली, रतनावली सुरंग |
अनुराग सरोवर में मनौं, उठत हैं रूप तरंग ||
रहस्य-मंजरी-लीला में, ध्रुवदासजी ने श्री राधा का वर्णन इसी शैली से करते हुए उनकी भावमूर्तता को बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है | ये कहते हैं कि सखियाँ श्री राधा के अंगो में प्रेमरूपी उबटन लगाकर उनको आनन्द-जल से स्नान कराती हैं | फिर उनको लाजरूपी साड़ी पहनाकर उनको वक्षस्थल पर प्रीतिरूपी अँगियाँ खींचकर बाँध देती है | श्री राधा के अंगो में हाव-भावरुपी आभूषण सुशोभित हो रहे है और उनमें से अनेक भाँति के सौरभों की फुहार उठ रही है | सखियों ने श्रृंगार रस का अंजन उनके नेत्रों में डाला है ओर अनुराग की मेंहदी से उनके कर और चरण रंगे है | उनकी रससिक्त चितवन से मानो करुणा की वर्षा हो रही है | उनके मुख पर सुहाग की ज्योति जगमगा रही है ओर नाक में लावण्य की मोती सुशोभित है | उनके केश स्नेह के फुलेल से भीगे हुये हैं, जिनमें उल्लास के फुल गुथे हुए हैं –
सखी हेत उद्वर्तन लावै | आनन्द रस सौं सबै न्हवावैं |
सारी लाज की अति ही बनी | अंगिया प्रीति हिये कसि तनी ||
हाव भाव भूषन तन बने | सौरभ गुन गन जात न गने ||
रस पति रस कौं रचि पचि कीन्हौं | सो अंजन लै नैनन दीन्हौं ||
मेंहदी रंग अनुराग सुरंगा | कर अरु चरन रचे तेहि रंगा ||
बंक चितवनी रस सौं भीनी | मनु करुना की बरषा कीनी ||
झलमल रही सुहाग की जोती | नासा कबि रह्यो पानिप मोती ||
नेह फुलेल बार वर भीने | फुल के फुलन सौं मुहिं लीने ||
इस प्रकार के वर्णन श्री श्यामा-श्याम की प्रेम स्वरूपता को ह्रदयंगम करने में बहुत सहायक होते हैं | इसके द्वारा उपासक का मन जागतिक प्रेम की स्थूलताओं का परित्याग करके दिव्य-भगवत्-प्रेम की सूक्ष्मताओं का अवगाहन करने लगता है | धुर्वदासजी की वर्णन शैली की उपयुर्क्त विशेषताओं को ध्यान में रखने से उनकी वाणी को समझाने में सहायता मिलती है | उनके द्वारा रचित निम्नलिखित ग्रन्थ बताए जाते है –
Leave your comment
Related posts
Planet Mercury in Astrology plays a prominent role in Vedic Astrology. It represents our communicative ability. Mercury is a messenger and acts like a prince for celestial cabinet. It delivers [...]
Ravana had given these three lessons to Laxman on his death bed: 1: The first thing that Ravana told Laxman was to do auspicious work as soon as possible and [...]
Planet Moon in Astrology plays a pivotal and prominent role in Vedic Astrology and Hinduism. Astronomically, Moon is not a planet, however, it is considered as one in Vedic Astrology. [...]