श्री श्रीहरिभक्ति विलास/ Shree Haribhakti Vilas

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दोलोत्सव (डोलोत्सव) मुख्यत: वैष्णवों के मंदिर में मनाया जानेवाला प्रमुख उत्सव है जिसमें कृष्ण की मूर्ति हिंडोले में रखकर उपवनादि में उत्सवार्थ ले जाते हैं। यों तो समस्त भारत में इस उत्सव का प्रचलन है किंतु वृंदावन तथा बंगाल में यह विशेष समारोह से मनाया जात है। बंगाल में इसे ‘दोलयात्रा’ कहते हैं।

आजकल यह उत्सव प्रतिपदा से युक्त फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा तथा चैत्र शुक्ला द्वादशी को मनाया जाता है। जैसा नाम से ही स्पष्ट है, इसमें दोल  (झूला) की प्रमुखता है। श्री गोपालभट्ट गोस्वामी विरचित ‘श्री हरिभक्ति विलास’ नामक निबंधग्रंथ के अनुसार चैत्र शुक्ला द्वादशी को वैष्णवों को आमंत्रित कर गीत-वाद्य-संकीर्तन-सहित विविध उपचारों से भगवान श्री कृष्ण का पूजन करके प्रणामपूर्वक उन्हें दोलारूढ़ कराके झुलाने का विधान है। इस प्रकार दिन व्यतीत होने पर वैष्णवों सहित रात्रि जागरण करे। चैत्र शुक्ला तृतीया तथा उत्तराफाल्गुनी से युक्त फाल्गुनी पूर्णिमा को भी यह उत्सव करना चाहिए।

पद्मपुराण के पाताल खंड में भी दोलोत्सव या दोलयात्रा का विशद वर्णन है:

दोलोत्सव करने के निमित्त चार द्वारोंवाला, वेदिका से युक्त मंडप का निर्माण करे। सुंदर सुगंधित पुष्पों तथा पल्लवों आदि से मंडप को सजाकर उसे चामर, छत्र, ध्वजा आदि से अलंकृत करे। इस मंडप में विविधोपचार पूजन करके स्वर्ण-रत्न-मंडित अथवा पुष्प पत्र आदि से निर्मित डोल में भगवान को झुलाएं।

उक्त पौराणिक वर्णन से यह स्पष्ट है कि यह उत्सव अति प्राचीन काल से प्राय: समस्त भारत में प्रचलित था। पहले यह उत्सव फाल्गुन तथा चैत्र मास में अनेक दिनों तक होता था। कालांतर में यह संक्षिप्त होता गया। अब यह केवल दो दिनों का रह गया है- फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा तथा चैत्र शुक्ला द्वादशी। इस उत्सव को बसंतोत्सव का अंग माना जा सकता है। पद्मपुराण (पाताल खंड), गरुण पुराण, दोलयात्रातत्व तथा श्रीहरिभक्तिविलास में इस उत्सव के विशद विवेचन तथा मतमतांतर उपलब्ध हैं।

Description

दोलोत्सव (डोलोत्सव) मुख्यत: वैष्णवों के मंदिर में मनाया जानेवाला प्रमुख उत्सव है जिसमें कृष्ण की मूर्ति हिंडोले में रखकर उपवनादि में उत्सवार्थ ले जाते हैं। यों तो समस्त भारत में इस उत्सव का प्रचलन है किंतु वृंदावन तथा बंगाल में यह विशेष समारोह से मनाया जात है। बंगाल में इसे ‘दोलयात्रा’ कहते हैं।

आजकल यह उत्सव प्रतिपदा से युक्त फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा तथा चैत्र शुक्ला द्वादशी को मनाया जाता है। जैसा नाम से ही स्पष्ट है, इसमें दोल  (झूला) की प्रमुखता है। श्री गोपालभट्ट गोस्वामी विरचित ‘श्री हरिभक्ति विलास’ नामक निबंधग्रंथ के अनुसार चैत्र शुक्ला द्वादशी को वैष्णवों को आमंत्रित कर गीत-वाद्य-संकीर्तन-सहित विविध उपचारों से भगवान श्री कृष्ण का पूजन करके प्रणामपूर्वक उन्हें दोलारूढ़ कराके झुलाने का विधान है। इस प्रकार दिन व्यतीत होने पर वैष्णवों सहित रात्रि जागरण करे। चैत्र शुक्ला तृतीया तथा उत्तराफाल्गुनी से युक्त फाल्गुनी पूर्णिमा को भी यह उत्सव करना चाहिए।

पद्मपुराण के पाताल खंड में भी दोलोत्सव या दोलयात्रा का विशद वर्णन है:

दोलोत्सव करने के निमित्त चार द्वारोंवाला, वेदिका से युक्त मंडप का निर्माण करे। सुंदर सुगंधित पुष्पों तथा पल्लवों आदि से मंडप को सजाकर उसे चामर, छत्र, ध्वजा आदि से अलंकृत करे। इस मंडप में विविधोपचार पूजन करके स्वर्ण-रत्न-मंडित अथवा पुष्प पत्र आदि से निर्मित डोल में भगवान को झुलाएं।

उक्त पौराणिक वर्णन से यह स्पष्ट है कि यह उत्सव अति प्राचीन काल से प्राय: समस्त भारत में प्रचलित था। पहले यह उत्सव फाल्गुन तथा चैत्र मास में अनेक दिनों तक होता था। कालांतर में यह संक्षिप्त होता गया। अब यह केवल दो दिनों का रह गया है- फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा तथा चैत्र शुक्ला द्वादशी। इस उत्सव को बसंतोत्सव का अंग माना जा सकता है। पद्मपुराण (पाताल खंड), गरुण पुराण, दोलयात्रातत्व तथा श्रीहरिभक्तिविलास में इस उत्सव के विशद विवेचन तथा मतमतांतर उपलब्ध हैं।

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