धर्मतत्त्व – स्वामी विवेकानंद /dharmatattav swami vivekananda

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धर्मतत्त्व – स्वामी विवेकानंद द्वारा

“धर्मतत्त्व” स्वामी विवेकानंद का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और गहन विचारपूर्ण लेख है, जिसमें उन्होंने धर्म के वास्तविक स्वरूप को स्पष्ट किया है। यह केवल धार्मिक कर्तव्यों या कर्मकांडों का वर्णन नहीं है, बल्कि धर्म के दार्शनिक, नैतिक और आत्मिक पहलुओं की गहराई से विवेचना है।

स्वामी विवेकानंद के अनुसार:

  • धर्म कोई संकीर्ण परंपरा या जातिगत नियम नहीं, बल्कि वह सार्वभौमिक सिद्धांत है जो मनुष्य और ब्रह्मांड दोनों को संचालित करता है।

  • सच्चा धर्म वह है जो व्यक्ति को अपने भीतर स्थित दिव्यता (ईश्वरत्व) का अनुभव कराए।

  • धर्म का मूल उद्देश्य आत्मोद्धार और मोक्ष की प्राप्ति है, न कि केवल बाहरी आडंबर या पूजा-पाठ।

  • स्वामीजी बताते हैं कि धर्म का स्वरूप समय, स्थान और व्यक्ति की स्थिति के अनुसार बदलता है, लेकिन उसका सार एक ही रहता है — सच्चाई, करुणा, आत्म-ज्ञान और परोपकार

  • उन्होंने यह भी कहा कि धर्म का पालन केवल तभी सार्थक होता है, जब वह आत्मा की स्वतंत्रता और सभी प्राणियों में ईश्वर की भावना के साथ जुड़ा हो।

धर्मतत्त्व – स्वामी विवेकानंद द्वारा

धर्मतत्त्व” स्वामी विवेकानंद का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और गहन विचारपूर्ण लेख है, जिसमें उन्होंने धर्म के वास्तविक स्वरूप को स्पष्ट किया है। यह केवल धार्मिक कर्तव्यों या कर्मकांडों का वर्णन नहीं है, बल्कि धर्म के दार्शनिक, नैतिक और आत्मिक पहलुओं की गहराई से विवेचना है।

स्वामी विवेकानंद के अनुसार:

  • धर्म कोई संकीर्ण परंपरा या जातिगत नियम नहीं, बल्कि वह सार्वभौमिक सिद्धांत है जो मनुष्य और ब्रह्मांड दोनों को संचालित करता है।

  • सच्चा धर्म वह है जो व्यक्ति को अपने भीतर स्थित दिव्यता (ईश्वरत्व) का अनुभव कराए।

  • धर्म का मूल उद्देश्य आत्मोद्धार और मोक्ष की प्राप्ति है, न कि केवल बाहरी आडंबर या पूजा-पाठ।

  • स्वामीजी बताते हैं कि धर्म का स्वरूप समय, स्थान और व्यक्ति की स्थिति के अनुसार बदलता है, लेकिन उसका सार एक ही रहता है — सच्चाई, करुणा, आत्म-ज्ञान और परोपकार

  • उन्होंने यह भी कहा कि धर्म का पालन केवल तभी सार्थक होता है, जब वह आत्मा की स्वतंत्रता और सभी प्राणियों में ईश्वर की भावना के साथ जुड़ा हो।

Description

Dharmatattva” by Swami Vivekananda is a discourse that explores the essence and deeper meaning of Dharma, often translated as “righteousness,” “duty,” or “spiritual law.” Swami Vivekananda, a key figure in introducing Indian philosophy to the West, delves into the philosophical, ethical, and spiritual dimensions of Dharma in this work.

Here’s a concise description in English:


Dharmatattva 

In Dharmatattva, Swami Vivekananda explains that Dharma is not just a set of religious duties or rituals, but rather the fundamental law that governs the universe and human life. He emphasizes that true Dharma arises from self-realization and inner purity, not from mere external observance.

Swami Vivekananda teaches that:

  •  Dharma is universal, but its application varies according to time, place, and individual capacity.

  • Morality and ethics are rooted in the realization of the divine presence in all beings.

  • The purpose of Dharma is to help individuals rise above selfishness and realize their true nature, which is divine.

  • Real Dharma leads to freedom (moksha), which is the ultimate goal of life in Indian philosophy.

Through Dharmatattva,

धर्मतत्त्व – स्वामी विवेकानंद द्वारा

“धर्मतत्त्व” स्वामी विवेकानंद का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और गहन विचारपूर्ण लेख है, जिसमें उन्होंने धर्म के वास्तविक स्वरूप को स्पष्ट किया है। यह केवल धार्मिक कर्तव्यों या कर्मकांडों का वर्णन नहीं है, बल्कि धर्म के दार्शनिक, नैतिक और आत्मिक पहलुओं की गहराई से विवेचना है।

स्वामी विवेकानंद के अनुसार:

  • धर्म कोई संकीर्ण परंपरा या जातिगत नियम नहीं, बल्कि वह सार्वभौमिक सिद्धांत है जो मनुष्य और ब्रह्मांड दोनों को संचालित करता है।

  • सच्चा धर्म वह है जो व्यक्ति को अपने भीतर स्थित दिव्यता (ईश्वरत्व) का अनुभव कराए।

  • धर्म का मूल उद्देश्य आत्मोद्धार और मोक्ष की प्राप्ति है, न कि केवल बाहरी आडंबर या पूजा-पाठ।

  • स्वामीजी बताते हैं कि धर्म का स्वरूप समय, स्थान और व्यक्ति की स्थिति के अनुसार बदलता है, लेकिन उसका सार एक ही रहता है — सच्चाई, करुणा, आत्म-ज्ञान और परोपकार

  • उन्होंने यह भी कहा कि धर्म का पालन केवल तभी सार्थक होता है, जब वह आत्मा की स्वतंत्रता और सभी प्राणियों में ईश्वर की भावना के साथ जुड़ा हो।

धर्मतत्त्व – स्वामी विवेकानंद द्वारा

धर्मतत्त्व” स्वामी विवेकानंद का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और गहन विचारपूर्ण लेख है, जिसमें उन्होंने धर्म के वास्तविक स्वरूप को स्पष्ट किया है। यह केवल धार्मिक कर्तव्यों या कर्मकांडों का वर्णन नहीं है, बल्कि धर्म के दार्शनिक, नैतिक और आत्मिक पहलुओं की गहराई से विवेचना है।

स्वामी विवेकानंद के अनुसार:

  • धर्म कोई संकीर्ण परंपरा या जातिगत नियम नहीं, बल्कि वह सार्वभौमिक सिद्धांत है जो मनुष्य और ब्रह्मांड दोनों को संचालित करता है।

  • सच्चा धर्म वह है जो व्यक्ति को अपने भीतर स्थित दिव्यता (ईश्वरत्व) का अनुभव कराए।

  • धर्म का मूल उद्देश्य आत्मोद्धार और मोक्ष की प्राप्ति है, न कि केवल बाहरी आडंबर या पूजा-पाठ।

  • स्वामीजी बताते हैं कि धर्म का स्वरूप समय, स्थान और व्यक्ति की स्थिति के अनुसार बदलता है, लेकिन उसका सार एक ही रहता है — सच्चाई, करुणा, आत्म-ज्ञान और परोपकार

  • उन्होंने यह भी कहा कि धर्म का पालन केवल तभी सार्थक होता है, जब वह आत्मा की स्वतंत्रता और सभी प्राणियों में ईश्वर की भावना के साथ जुड़ा हो।

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