सेवक वाणीSevak Vani

270.00

हित की उपासना का आधार कहे जाने वाले श्री दामोदर दास ‘सेवक जी’ महाराज का जन्म
सम्वत् 1575 वि. की श्रावण-शुक्ल-तृतीया को एक पवित्र एवं विद्वान् ब्राह्मण के
यहाँ गढ़ा धाम में हुआ। आपके पिता दो भाई थे। दोनों भाइयों से दो सन्तानें हुई बड़े भाई से
चतुर्भुजदास और छोटे से श्री दामोदर दास बचपन से ही दोनों बालक होनहार मेधावी और
सुन्दर थे समय बीतने के साथ दोनोंभ्राता निरन्तर भजन-पूजन, कथा कीर्तन में ही अपना
सारा समय बिताने लगे। बाल्यकाल में दोनों भ्राताओं को भक्ति-शास्त्रों की सुंदर शिक्षा
प्रदान की गई जिससे उनका संतों के प्रति अनुराग बढ़ा उन दिनों धर्म का प्रसार करने
के लिए आचार्य एवं संत महात्मागण अपने साथ बहुत से सन्तों को लेकर जमात बनाकर
स्वतंत्र भाव से यहाँ-वहाँ विचरण किया करते थे। श्री वृंदावन की एक साधुमण्डली ने इन भक्त
भ्राताओं की प्रशंसा सुनकर इनके घर निवास किया। इन्होंने भी सन्तों की बड़ी आव-भगत की। दोनों भ्राताओं ने सन्तों के चरणों में बैठकर श्री वृन्दावन की माधुरी सुनाने का निवेदन किया। मण्डली के वृद्ध संत श्री नवलदास जी के द्वारा श्री वृन्दावन के गौरव श्री हित हरिवंश महाप्रभु की
​महिमा का वर्णन सबके समक्ष किया।

दोनों भाई श्रीवृन्दावन के लिए निकले की उन्हें मार्ग में पता चला कि आचार्य पाद ने एक

प्रतिज्ञा ली है। इस प्रतिज्ञा से सेवक दामोदर कोश्रीवन जाने में बहुत संकोच हुआ।

सेवक जी ने निर्णय लिया कि वे भेष बदलकर वृन्दावन में जाऐंगे।

परन्तु लाख छुपाने पर भी सेवक जी आचार्य पाद की दृष्टि में आ गए।

तब सेवक जी ने आचार्यपाद से निवेदन किया कि ‘आप श्रीजी प्रसाद भण्डार लुटा दे

और अमनिया भण्डार सेवा में उपयोग करने की कृपा करें। आचार्य पाद ने ऐसा ही किया।

सेवक जी को अभी वृन्दावन आए केवल सात दिनही हुए थे। वो दिव्य रासमण्डल जहाँ

सारा संत समाज बैठा हुआ था अकस्मात् सेवक जी खड़े हुए और ‘हा हरिवंश’

कहते हुए एक वट वृक्ष में विलीन हो गए। सेवक जी ने हित की उपासना का आधार

श्रीसेवक वाणी में वर्णन किया हे। सेवक वाणी और कुछ नहीं महाप्रभु जी का स्वरूप है।

Description

हित की उपासना का आधार कहे जाने वाले श्री दामोदर दास ‘सेवक जी’ महाराज का जन्म
सम्वत् 1575 वि. की श्रावण-शुक्ल-तृतीया को एक पवित्र एवं विद्वान् ब्राह्मण के
यहाँ गढ़ा धाम में हुआ। आपके पिता दो भाई थे। दोनों भाइयों से दो सन्तानें हुई बड़े भाई से
चतुर्भुजदास और छोटे से श्री दामोदर दास बचपन से ही दोनों बालक होनहार मेधावी और
सुन्दर थे समय बीतने के साथ दोनोंभ्राता निरन्तर भजन-पूजन, कथा कीर्तन में ही अपना
सारा समय बिताने लगे। बाल्यकाल में दोनों भ्राताओं को भक्ति-शास्त्रों की सुंदर शिक्षा
प्रदान की गई जिससे उनका संतों के प्रति अनुराग बढ़ा उन दिनों धर्म का प्रसार करने
के लिए आचार्य एवं संत महात्मागण अपने साथ बहुत से सन्तों को लेकर जमात बनाकर
स्वतंत्र भाव से यहाँ-वहाँ विचरण किया करते थे। श्री वृंदावन की एक साधुमण्डली ने इन भक्त
भ्राताओं की प्रशंसा सुनकर इनके घर निवास किया। इन्होंने भी सन्तों की बड़ी आव-भगत की। दोनों भ्राताओं ने सन्तों के चरणों में बैठकर श्री वृन्दावन की माधुरी सुनाने का निवेदन किया। मण्डली के वृद्ध संत श्री नवलदास जी के द्वारा श्री वृन्दावन के गौरव श्री हित हरिवंश महाप्रभु की
​महिमा का वर्णन सबके समक्ष किया।

दोनों भाई श्रीवृन्दावन के लिए निकले की उन्हें मार्ग में पता चला कि आचार्य पाद ने एक

प्रतिज्ञा ली है। इस प्रतिज्ञा से सेवक दामोदर कोश्रीवन जाने में बहुत संकोच हुआ।

सेवक जी ने निर्णय लिया कि वे भेष बदलकर वृन्दावन में जाऐंगे।

परन्तु लाख छुपाने पर भी सेवक जी आचार्य पाद की दृष्टि में आ गए।

तब सेवक जी ने आचार्यपाद से निवेदन किया कि ‘आप श्रीजी प्रसाद भण्डार लुटा दे

और अमनिया भण्डार सेवा में उपयोग करने की कृपा करें। आचार्य पाद ने ऐसा ही किया।

सेवक जी को अभी वृन्दावन आए केवल सात दिनही हुए थे। वो दिव्य रासमण्डल जहाँ

सारा संत समाज बैठा हुआ था अकस्मात् सेवक जी खड़े हुए और ‘हा हरिवंश’

कहते हुए एक वट वृक्ष में विलीन हो गए। सेवक जी ने हित की उपासना का आधार

श्रीसेवक वाणी में वर्णन किया हे। सेवक वाणी और कुछ नहीं महाप्रभु जी का स्वरूप है।

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