श्री सेवक वाणी/ Shree Sevak Vani

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Description

रसिक आचार्य श्री हित हरिवंश चन्द्र के पश्चात् इस रस का विशद प्रचार किया, श्री दामोदरदास सेवकजी ने। यह सेवकजी कौन थे और उन्होंने कैसे इसका व्यापक प्रचार किया? यह बात पाठकों को सेवकजी के चरित्र में मिलेगी; जो इसी ग्रन्थ में सम्बद्ध है हम यहाँ केवल सेवकजी के ग्रन्थ ‘सेवक वाणी’ की ही चर्चा करेंगे, जिसके आधार पर गोस्वामी हित हरिवंश चन्द्र द्वारा स्थापित-रस मार्ग ‘नित्य-विहार’ की नींव सुदृढ़ हुई और उसका प्रचार भी हुआ। विक्रम संवत १६०९ में दामोदर दास जी गोस्वामी श्री हित हरिवंश चन्द्र के कृपापात्र शिष्य हुए। उन पर वंशी अवतार श्री हित हरिवंश महाप्रभु की कृपा हुई और उन्हें इष्ट-तत्व नित्य विहार रस का साक्षात्कार हुआ। तदुपरान्त उनके निर्मल हृदय में दिव्य वाणी का प्रादुर्भाव हुआ यही दिव्य वाणी ‘सेवक-वाणी’ के नाम से प्रख्यात हुई।

‘श्री सेवक वाणी’ एक दिव्य प्रसाद ग्रन्थ है। इसका प्राकट्य सेवकजी- दामोदरदास जी की महा प्रेमोन्मत्त दशा में हुआ है, अत: इसकी भाषा जटिल, क्लिष्ट, असम्बद्ध जैसी और ग्रामीण भाषा मिश्रित है फिर भी इसमें परम तत्व प्रेम का बड़ा विशद वर्णन है। सेवकजी के मत से गोस्वामी श्री हित हरिवंश चन्द्र साक्षात् प्रेम तत्व के अवतार हैं। वे नित्य विहारी श्री राधावल्लभ लाल की प्रेम नादमयी एवं विश्व विमोहनी वंशी के स्वरूप हैं। जिस प्रकार प्रेम व्यापक और एक देशीय है, उसी प्रकार श्रीहरिवंशचन्द्र भी व्यापक प्रेम होते हुए भी व्यास मिश्र के कुल-दीपक हैं। वे प्रिया प्रियतम सखी एवं श्रीवन हैं। वे रस हैं. रस के आधार हैं और रसमय केलि के सूत्रधार एवं स्वयं रस केलि हैं। इसके सिवाय वे चराचर व्यापी प्रेम हैं, उनके सिवाय और कुछ नहीं हैं।

‘सेवक वाणी’ में कुल सोलह प्रकरण हैं। इन प्रकरणों में क्रमश: श्री हरिवंश का यश-विस्तार (अर्थात् वैभव ऐश्वर्य रूप) श्री हरिवंश का रसमय स्वरूप, उनके नाम का प्रताप, उनकी रसमयी वाणी (वचनावली) का प्रभाव, प्रताप उनके स्वरूप का विचार, उनके द्वारा प्रकाशित नित्य-विहार के उपासकों का धर्म-कर्तव्य, रस-रति, अनन्यता, श्रीहरिवंश की कृपा एवं कृपा हीनता के लक्षण; भक्तों के प्रति भाव; युगल की केलि का स्वरूप श्रीहरिवंश का नाम प्रभाव-धाम-ध्यान; श्रीहरिवंश मंगल गान, कच्चे एवं पक्के हित धर्मियों का स्वरूप; उनका कर्तव्य, अलभ्य वस्तु (नित्य विहार दाता श्रीहरिवंश) का लाभ और युगल किशोर के पारस्परिक मान के स्वरूप का वर्णन है। इसके सिवाय इस ग्रन्थ में अनेकों युक्तियों, तकों एवं प्रमाणों के द्वारा प्रेम-धर्म (हित-रीति) को ही सर्वोपरि बताया गया है। सेवकजी ने प्रेम जैसे अनिर्वचनीय विषय का बड़ी कुशलता के साथ केवल सोलह प्रकरणों में विस्तीर्ण एवं समुज्ज्वल वर्णन किया है। प्रेम तत्व की प्राप्ति के विविध साधनों (उपायों) का सप्रभाव वर्णन किया है उन्होंने इसमें। इस विचार से यदि इस ग्रन्थ को थोड़े शब्दों में श्रीराधावल्लभीय सम्प्रदाय का भाष्य ग्रन्थ कह दें तो कोई अत्युक्ति न होगी। जो लोग सेवक वाणी के तत्व एवं सिद्धान्तों से दूर हैं, अनभिज्ञ हैं, श्रीराधावल्लभीय नित्य-विहार रसोपासना मार्ग में ठीक-ठीक रीति से चलने में असमर्थ होंगे, ऐसा विज्ञ रसिक महानुभावों का मत ही नहीं वरं आग्रह है। जो सेवक बानी नहिं जानें। ताकी बात न रसिक प्रमानें ॥ अतएव प्रत्येक रसोपासक के लिये विशेषतया श्रीहित राधावल्लभीय साधक के लिये इस ग्रन्थ का प्रणयन-अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है। इसके स्वाध्याय से प्रेम-जिज्ञासु का पथ प्रशस्त होगा।

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Weight 0.3 kg

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