श्री श्रीभक्तिसन्दर्भ/ Shree Shree Bhakti Sandarbh

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भक्ति-सन्दर्भ
इसमें भक्ति के स्वरूप, प्रकार, अंग और गोपानादि का वर्णन किया गया है। भक्ति है ईश्वर में परानुरक्ति। यह जीव की अपनी शक्ति नहीं, भगवान् की ह्लादिनी शक्ति की वृत्ति है। गुणातीत ह्लादिनी शक्ति की वृत्ति होने के कारण यह निर्गुण हैं, प्रपञ्चातीत है, भगवान् इसे जीव के चित्त में निक्षिप्त कर उसे आनन्दित करते हैं और स्वयं भी आनन्दित होते हैं।[1] भक्त्यानन्द भगवान् के स्वरूपानन्द से भी श्रेष्ठ है।
भक्ति कर्म, ज्ञान और योग से श्रेष्ठ है। भक्ति की प्रारम्भिक अवस्था में ज्ञान और योग सहायक हैं, क्योंकि वे सांसारिक विषयों की कामना से मुक्त हैं। भक्ति की उच्चतर अवस्था में वे बाधक हैं, क्योंकि मुक्ति की कामना से वे मुक्त नहीं हैं, पर किसी भी अवस्था में वे भक्ति का आवश्यक अंग नहीं है। कर्म, ज्ञान और योग फल की प्राप्ति के लिए भक्ति की अपेक्षा रखते हैं। भक्ति किसी अन्य साधन की अपेक्षा नहीं रखती। यह परम स्वतन्त्रता है।
वर्णाश्रम-धर्म भक्ति का अंग नहीं है। इससे स्वर्ग की प्राप्ति होती है, मुक्ति की नहीं। निष्काम-कर्म से मुक्ति की प्राप्ति होती है, श्रीकृष्ण की प्रेम सेवा की नहीं। कर्म के सम्यक् त्याग में भी भक्ति का आकार ही है, प्राण नहीं। भक्ति का प्राण है आत्यन्ति की श्रद्धा और श्रीकृष्ण की प्रेम सेवा की बलवती लालसा।
भगवत्-साक्षात्कार भक्ति से ही होता है, अन्य किसी साधन से नहीं। यदि हृदय में भक्ति न हो और साक्षात्कार हो तो वह साक्षात्कार भी असाक्षात्कार के समान है। उससे भगवान् के माधुर्य का आस्वादन नहीं होता, उसी प्रकार जिस प्रकार पित्त दूषित जिह्ना से मिसरी के मिठास का आस्वादन नहीं होता-
भक्ति साधन भी है, साध्य भी। साधन-भक्ति साध्य-भक्ति की अपरिपक्वावस्था है। साधन-भक्ति के चौसठ अंग है, जिनका पर्यवसान नवधा-भक्ति में होता है। नवधा-भक्ति के अंग है-श्रवण, कीर्तन, स्मरण, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्म-निवेदन। इनमें भी नाम कीर्तन सर्वप्रधान है। नाम कीर्तन के बगैर भक्ति का कोई भी अंग पूर्ण नहीं है।
भक्ति दो प्रकार की है-वैधी और रागानुगा। वैधी-भक्ति के साधक भजन में प्रवृत्त होते हैं शास्त्र-विधि के भय से और सांसारिक दुखों से परित्राण पाने के उद्देश्य से। रागमार्ग् के साधक भजन में प्रवृत्त होते हैं। श्रीकृष्ण में राग, प्रीति या आसक्ति के कारण उनकी सेवा के लोभ से।
रागानुगा-भक्ति रागात्मिका भक्ति की अनुगता है। रागात्मिका भक्ति के आश्रय हैं नन्द-यशोदा-राधा-ललितादि, जो श्रीकृष्ण की स्वरूप-शक्ति के मूर्त विग्रह हैं और अनादिकाल से व्रजधाम में व्रज-परिकरों के रूप में विराजमान हैं।

Description

भक्ति-सन्दर्भ
इसमें भक्ति के स्वरूप, प्रकार, अंग और गोपानादि का वर्णन किया गया है। भक्ति है ईश्वर में परानुरक्ति। यह जीव की अपनी शक्ति नहीं, भगवान् की ह्लादिनी शक्ति की वृत्ति है। गुणातीत ह्लादिनी शक्ति की वृत्ति होने के कारण यह निर्गुण हैं, प्रपञ्चातीत है, भगवान् इसे जीव के चित्त में निक्षिप्त कर उसे आनन्दित करते हैं और स्वयं भी आनन्दित होते हैं।[1] भक्त्यानन्द भगवान् के स्वरूपानन्द से भी श्रेष्ठ है।
भक्ति कर्म, ज्ञान और योग से श्रेष्ठ है। भक्ति की प्रारम्भिक अवस्था में ज्ञान और योग सहायक हैं, क्योंकि वे सांसारिक विषयों की कामना से मुक्त हैं। भक्ति की उच्चतर अवस्था में वे बाधक हैं, क्योंकि मुक्ति की कामना से वे मुक्त नहीं हैं, पर किसी भी अवस्था में वे भक्ति का आवश्यक अंग नहीं है। कर्म, ज्ञान और योग फल की प्राप्ति के लिए भक्ति की अपेक्षा रखते हैं। भक्ति किसी अन्य साधन की अपेक्षा नहीं रखती। यह परम स्वतन्त्रता है।
वर्णाश्रम-धर्म भक्ति का अंग नहीं है। इससे स्वर्ग की प्राप्ति होती है, मुक्ति की नहीं। निष्काम-कर्म से मुक्ति की प्राप्ति होती है, श्रीकृष्ण की प्रेम सेवा की नहीं। कर्म के सम्यक् त्याग में भी भक्ति का आकार ही है, प्राण नहीं। भक्ति का प्राण है आत्यन्ति की श्रद्धा और श्रीकृष्ण की प्रेम सेवा की बलवती लालसा।
भगवत्-साक्षात्कार भक्ति से ही होता है, अन्य किसी साधन से नहीं। यदि हृदय में भक्ति न हो और साक्षात्कार हो तो वह साक्षात्कार भी असाक्षात्कार के समान है। उससे भगवान् के माधुर्य का आस्वादन नहीं होता, उसी प्रकार जिस प्रकार पित्त दूषित जिह्ना से मिसरी के मिठास का आस्वादन नहीं होता-
भक्ति साधन भी है, साध्य भी। साधन-भक्ति साध्य-भक्ति की अपरिपक्वावस्था है। साधन-भक्ति के चौसठ अंग है, जिनका पर्यवसान नवधा-भक्ति में होता है। नवधा-भक्ति के अंग है-श्रवण, कीर्तन, स्मरण, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्म-निवेदन। इनमें भी नाम कीर्तन सर्वप्रधान है। नाम कीर्तन के बगैर भक्ति का कोई भी अंग पूर्ण नहीं है।
भक्ति दो प्रकार की है-वैधी और रागानुगा। वैधी-भक्ति के साधक भजन में प्रवृत्त होते हैं शास्त्र-विधि के भय से और सांसारिक दुखों से परित्राण पाने के उद्देश्य से। रागमार्ग् के साधक भजन में प्रवृत्त होते हैं। श्रीकृष्ण में राग, प्रीति या आसक्ति के कारण उनकी सेवा के लोभ से।
रागानुगा-भक्ति रागात्मिका भक्ति की अनुगता है। रागात्मिका भक्ति के आश्रय हैं नन्द-यशोदा-राधा-ललितादि, जो श्रीकृष्ण की स्वरूप-शक्ति के मूर्त विग्रह हैं और अनादिकाल से व्रजधाम में व्रज-परिकरों के रूप में विराजमान हैं।

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