Description
प्रति सन्दर्भ में परमपुरुषार्थ का निरूपण किया गया है। परमतम पुरुषार्थ है। भगवत् प्रीति। प्रीति शब्द सुख और प्रियता दोनों का व्यञ्जक है। प्रियता में सुख का धर्म विद्यमान है, पर सुख को प्रियता नहीं कहा जा सकता। सुख का तात्पर्य एकमात्र अपने उल्लास से है, प्रियता का तात्पर्य प्रीति के विषय या प्रियजन के उल्लास के कारण अपने हृदय में जो उल्लास होता है उससे है। सुख के मूल में किसी का आनुकूल्य या सुख विधान करने की स्पृहा नहीं रहती, इसलिए सुख का विषय नहीं होता। प्रियता के मूल में प्रियजन का सुख-विधान करने की स्पृहा रहती है, इसलिए उसका विषय होता है। भगवत् प्रीति की प्रथम अवस्था में देहादि की आसक्ति जाती रहती है। भगवत् प्रीति के पूर्णाविर्भाव में भगवान् में परमावेश और परमानन्द पूर्णता की उत्पत्ति होती है। भक्त के चित्त में आविर्भूता प्रीति उसके चित्त में संस्कार-विशेष उत्पन्न कर उसे क्रमश: रति, प्रेम प्रणय, मान, स्नेह, राग, अनुराग और महाभाव के स्तर तक ले जाती है। रति में उल्लास की अधिकता होती है। रति के उत्पन्न होने पर केवल भगवान् में ही प्रयोजन-बुद्धि होती है। भगवान् के अतिरिक्त और सभी पदार्थ तुच्छ प्रतीत होने लगते हैं।
प्रेम में कृष्ण के प्रति ममता अधिक होती है। प्रेम उत्पन्न होने पर यदि प्रीति भंग होने का कारण भी उपस्थित हो तो उसके स्वरूप में किसी प्रकार की कमी नहीं आती। ममता किस प्रकार प्रीति को समृद्ध करती है इसका उदाहरण देते हुए मार्कण्डेय पुराण में कहा गया है कि ममतायुक्त पालतू मुर्गे को विल्ली के खा जाने से उसके मालिक को जितना दुख होता है, उतना ममता शून्य चूहे को चटक पक्षी के खा जाने से नहीं होता। प्रेम लक्षणा-भक्ति में ममता के आधिक्य के कारण ममता को ही भक्ति कहा गया है।
प्रणय में विश्वास की, विश्रंभ की प्रचुरता होती है। प्रणय में सम्भ्रम के लिए स्थान नहीं रहता, क्योंकि इसमें अपने मन, प्राण, बुद्धि, देह परिच्छदादि के प्रिय के मन, प्राण, बुद्धि, देह, परिच्छदादि से अभिन्न होने की बुद्धि होती है।
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Weight | 0.3 kg |
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