श्री गीतगोविन्द/ Shree Geetgovind

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गीतगोविन्द 12 वीं शताब्दी में लिखी गयी एक ऐसी काव्य रचना है जो हमें भगवान कृष्ण और राधारानी के प्रेम के बारे में बताती है। इसमें कुल 12 अध्याय हैं। यह काव्य ओडिशा राज्य के भुबनेश्वर और पुरी शहर के मध्यवर्ती केन्दुबिल्व या केन्दुलि शासन नाम के गांव में वास करने वाले ब्राह्मण जयदेव की कृति है। जयदेव ने उनकि पत्नी पाद्मावति के सहयता से इसका ऐसा रुपान्तर किया कि तत्कालिन उत्कल (ओडिशा का पूर्व नाम) के राजा ईर्ष्या करने लगे। फिर जब गीतगोविन्द की प्राधान्य जगन्नाथ जी ने स्वप्न में राजा को बतायी तब से मन्दिर के देवादासी रात के एकान्त सेवा और सुबह कि सेवा में प्रभु जगन्नाथ के सामने ओडिशी नृत्य-रूप में पेश करने लगें। पहले विद्वानों का मानना था कि जयदेव बंगाल के राजा के सभाकवि थे। पर शिलालेख एवं प्राचीन मन्दिर जो ओडिशा में मौजूद हैं, उनसे प्रमाणित हुआ कि जयदेव जगन्नाथ के भक्त थे और उत्कल राज्य के वासी थे। आज भी ओडिशी नृत्य के माध्यम से गीतगोविन्द सर्वजनीन प्रिय हो रहा है। ओडिशी नृत्य ही जयदेव का ओडिशा प्रान्त का होना सुचित करता है। उनकि गीतगोविन्द काव्य कि प्रचार पडोशी आन्ध्र, तमिलनाडु तथा कर्णाटक में हुआ। फिर उत्तरभारत में खासतौर पर राजस्थान में मीरावाई के द्वारा हुआ। गुरुग्रन्थ साहिब में भी भगत जयदेव का नाम लिख है जो गीतगोविन्द के रचयिता हैं।

‘गीतगोविन्द’ जयदेव के जीवन काल में ही पर्याप्त रूप से प्रचलित एवं लोकप्रिय हो गया था—इसके अनेक प्रमाण मिलते हैं। दक्षिण में तो वह इतना अधिक प्रचलित हो गया कि इसके पद्यों को तिरुपति बालाजी के मन्दिर की सीढ़ियों पर द्रविण लिपि में खुदवाया गया। श्रीवल्लभ सम्प्रदाय में तो श्रीमद्भागवत् पुराण के समान इसकी प्रतिष्ठा है। वैष्णवों में यह विश्वास है कि ‘गीतगोविन्द’ जहाँ गाया जाता है, वहाँ भगवान का अवश्य ही प्रादुर्भाव होता है। इसी से इस सम्प्रदाय में इसे अयोग्य स्थान पर न गाये जाने का विधान किया गया है, जिसका कठोरता से पालन किया जाता है।‘गीतगोविन्द’ काव्य में बारह सर्ग हैं, जिनका चौबीस प्रबन्धों (खण्डों) में विभाजन हुआ है। इन प्रबन्धों का उपविभाजन पदों अथवा गीतों में हुआ है। प्रत्येक पद अथवा गीत में आठ पद्य हैं।  गीतों के वक्ता कृष्ण, राधा अथवा राधा की सखी हैं। अत्यन्त नैराश्य और निरवधि-वियोग को छोड़कर भारतीय प्रेम के शेष सभी रूपों – अभिलाषा, ईर्ष्या, प्रत्याशा, निराशा, कोप, मान, पुनर्मिलन तथा हर्षोल्लास आदि—का बड़ी तन्मयता और कुशलता के साथ वर्णन किया गया है। प्रेम के इन सभी रूपों का वर्णन अत्यन्त रोचक, सरस और सजीव होने के अतिरिक्त इतना सुन्दर है कि ऐसा प्रतीत होता है, मानो कवि शास्त्र, अर्थात् चिन्तन (कामशास्त्र) को भावना का रूप अथवा अमूर्त को मूर्त रूप देकर उसे कविता में परिणीत कर रहा है।

Description

गीतगोविन्द 12 वीं शताब्दी में लिखी गयी एक ऐसी काव्य रचना है जो हमें भगवान कृष्ण और राधारानी के प्रेम के बारे में बताती है। इसमें कुल 12 अध्याय हैं। यह काव्य ओडिशा राज्य के भुबनेश्वर और पुरी शहर के मध्यवर्ती केन्दुबिल्व या केन्दुलि शासन नाम के गांव में वास करने वाले ब्राह्मण जयदेव की कृति है। जयदेव ने उनकि पत्नी पाद्मावति के सहयता से इसका ऐसा रुपान्तर किया कि तत्कालिन उत्कल (ओडिशा का पूर्व नाम) के राजा ईर्ष्या करने लगे। फिर जब गीतगोविन्द की प्राधान्य जगन्नाथ जी ने स्वप्न में राजा को बतायी तब से मन्दिर के देवादासी रात के एकान्त सेवा और सुबह कि सेवा में प्रभु जगन्नाथ के सामने ओडिशी नृत्य-रूप में पेश करने लगें। पहले विद्वानों का मानना था कि जयदेव बंगाल के राजा के सभाकवि थे। पर शिलालेख एवं प्राचीन मन्दिर जो ओडिशा में मौजूद हैं, उनसे प्रमाणित हुआ कि जयदेव जगन्नाथ के भक्त थे और उत्कल राज्य के वासी थे। आज भी ओडिशी नृत्य के माध्यम से गीतगोविन्द सर्वजनीन प्रिय हो रहा है। ओडिशी नृत्य ही जयदेव का ओडिशा प्रान्त का होना सुचित करता है। उनकि गीतगोविन्द काव्य कि प्रचार पडोशी आन्ध्र, तमिलनाडु तथा कर्णाटक में हुआ। फिर उत्तरभारत में खासतौर पर राजस्थान में मीरावाई के द्वारा हुआ। गुरुग्रन्थ साहिब में भी भगत जयदेव का नाम लिख है जो गीतगोविन्द के रचयिता हैं।

‘गीतगोविन्द’ जयदेव के जीवन काल में ही पर्याप्त रूप से प्रचलित एवं लोकप्रिय हो गया था—इसके अनेक प्रमाण मिलते हैं। दक्षिण में तो वह इतना अधिक प्रचलित हो गया कि इसके पद्यों को तिरुपति बालाजी के मन्दिर की सीढ़ियों पर द्रविण लिपि में खुदवाया गया। श्रीवल्लभ सम्प्रदाय में तो श्रीमद्भागवत् पुराण के समान इसकी प्रतिष्ठा है। वैष्णवों में यह विश्वास है कि ‘गीतगोविन्द’ जहाँ गाया जाता है, वहाँ भगवान का अवश्य ही प्रादुर्भाव होता है। इसी से इस सम्प्रदाय में इसे अयोग्य स्थान पर न गाये जाने का विधान किया गया है, जिसका कठोरता से पालन किया जाता है।‘गीतगोविन्द’ काव्य में बारह सर्ग हैं, जिनका चौबीस प्रबन्धों (खण्डों) में विभाजन हुआ है। इन प्रबन्धों का उपविभाजन पदों अथवा गीतों में हुआ है। प्रत्येक पद अथवा गीत में आठ पद्य हैं।  गीतों के वक्ता कृष्ण, राधा अथवा राधा की सखी हैं। अत्यन्त नैराश्य और निरवधि-वियोग को छोड़कर भारतीय प्रेम के शेष सभी रूपों – अभिलाषा, ईर्ष्या, प्रत्याशा, निराशा, कोप, मान, पुनर्मिलन तथा हर्षोल्लास आदि—का बड़ी तन्मयता और कुशलता के साथ वर्णन किया गया है। प्रेम के इन सभी रूपों का वर्णन अत्यन्त रोचक, सरस और सजीव होने के अतिरिक्त इतना सुन्दर है कि ऐसा प्रतीत होता है, मानो कवि शास्त्र, अर्थात् चिन्तन (कामशास्त्र) को भावना का रूप अथवा अमूर्त को मूर्त रूप देकर उसे कविता में परिणीत कर रहा है।

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