श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्र/ Shree Vishnu Sahastrannam Stotra

20.00

श्री विष्णु सहस्रनाम में भगवान का रूप वैभव है तो सहस्रनाम में उसकी नाम रमणीयता है। महाभारत युद्ध की विभीषिका से क्षुब्ध धर्मराज युधिष्ठिर अपने भाइयों तथा पत्नी सहित शरशय्या पर लेटे भीष्म पितामह के सन्निकट गए और उनसे अनेक प्रकार की शंकाओं का समाधान करने का आग्रह किया। ज्यों ही पितामह ने उपदेश देना प्रारंभ किया त्यों ही द्रोपदी किंचित् हंस पड़ी। पितामह मौन हो गए और अविचलित भाव से द्रौपदी से पूछने लगे, ‘‘बेटी तू क्यों हंसी?  द्रौपदी ने सकुचाकर कहा, ‘‘दादाजी, मेरे अविनयको क्षमा करें। मुझे यों ही हंसी आ गई।’’  पितामह ने कहा, ‘‘नहीं बेटी, तू अभिजात परिवार की संस्कारी वधू है। तू यों ही नहीं हंस सकती। इसके पीछे कोई रहस्य अवश्य होना चाहिए।’’  द्रौपदी ने पुनः कहा, ’’नहीं दादा जी, कुछ रहस्य नहीं है। पर यदि आप आज्ञा करते हैं तो मैं पुनः क्षमा याचना कर पूछती हूं कि आज तो आप बड़े ही गंभीर होकर कर्तव्य पालन का उपदेश दे रहे हैं, परंतु जब दुष्ट कौरव दुःशासन आप सबकी सभा में विराजमान होते हुए मुझे निर्वस्त्र कर रहा था, तब आपका ज्ञान और आपकी बुद्धि कहां चली गई थी?  यह बात स्मरण आते ही मैं अपनी हंसी न रोक सकी। मुझसे अशिष्टता अवश्य हुई है जिसके लिए मैं अत्यंत लज्जित हूं। क्षमा चाहती हूं।’’  पितामह द्रौपदी के वचन सुनकर बोले, ‘‘ बेटी, क्षमा मांगने या लज्जित होने की कोई बात नहीं है। तुमने ठीक ही जिज्ञासा की है और इसका उत्तर यह है कि उस समय मैं कौरवों का अन्न खा रहा था जो शुद्ध नहीं था, विकारी था। इसी कारण मेरी बुद्धि मारी गई थी परंतु अर्जुन के तीक्ष्ण वाणों से मेरे शरीर का अशुद्ध रक्त निकल गया है। अतः अब मैं अनुभव कर रहा हूं कि जो कुछ कहूंगा, वह मानव मात्र के लिए कल्याण-प्रद होगा।’’ तभी धर्मराज ने उनसे पूछा कि वह ऐसा कोई सरल उपाय बता दें जिससे लोक कल्याण-साधित हो सके। इसी अनुरोध पर पितामह ने जीव जगत के अंतर में स्पंदित परम-सत्य का साक्षात्कार कराने वाले श्रीविष्णु सहस्रनामों का महत्व प्रतिपादित किया। 

 

Description

श्री विष्णु सहस्रनाम में भगवान का रूप वैभव है तो सहस्रनाम में उसकी नाम रमणीयता है। महाभारत युद्ध की विभीषिका से क्षुब्ध धर्मराज युधिष्ठिर अपने भाइयों तथा पत्नी सहित शरशय्या पर लेटे भीष्म पितामह के सन्निकट गए और उनसे अनेक प्रकार की शंकाओं का समाधान करने का आग्रह किया। ज्यों ही पितामह ने उपदेश देना प्रारंभ किया त्यों ही द्रोपदी किंचित् हंस पड़ी। पितामह मौन हो गए और अविचलित भाव से द्रौपदी से पूछने लगे, ‘‘बेटी तू क्यों हंसी?  द्रौपदी ने सकुचाकर कहा, ‘‘दादाजी, मेरे अविनयको क्षमा करें। मुझे यों ही हंसी आ गई।’’  पितामह ने कहा, ‘‘नहीं बेटी, तू अभिजात परिवार की संस्कारी वधू है। तू यों ही नहीं हंस सकती। इसके पीछे कोई रहस्य अवश्य होना चाहिए।’’  द्रौपदी ने पुनः कहा, ’’नहीं दादा जी, कुछ रहस्य नहीं है। पर यदि आप आज्ञा करते हैं तो मैं पुनः क्षमा याचना कर पूछती हूं कि आज तो आप बड़े ही गंभीर होकर कर्तव्य पालन का उपदेश दे रहे हैं, परंतु जब दुष्ट कौरव दुःशासन आप सबकी सभा में विराजमान होते हुए मुझे निर्वस्त्र कर रहा था, तब आपका ज्ञान और आपकी बुद्धि कहां चली गई थी?  यह बात स्मरण आते ही मैं अपनी हंसी न रोक सकी। मुझसे अशिष्टता अवश्य हुई है जिसके लिए मैं अत्यंत लज्जित हूं। क्षमा चाहती हूं।’’  पितामह द्रौपदी के वचन सुनकर बोले, ‘‘ बेटी, क्षमा मांगने या लज्जित होने की कोई बात नहीं है। तुमने ठीक ही जिज्ञासा की है और इसका उत्तर यह है कि उस समय मैं कौरवों का अन्न खा रहा था जो शुद्ध नहीं था, विकारी था। इसी कारण मेरी बुद्धि मारी गई थी परंतु अर्जुन के तीक्ष्ण वाणों से मेरे शरीर का अशुद्ध रक्त निकल गया है। अतः अब मैं अनुभव कर रहा हूं कि जो कुछ कहूंगा, वह मानव मात्र के लिए कल्याण-प्रद होगा।’’ तभी धर्मराज ने उनसे पूछा कि वह ऐसा कोई सरल उपाय बता दें जिससे लोक कल्याण-साधित हो सके। इसी अनुरोध पर पितामह ने जीव जगत के अंतर में स्पंदित परम-सत्य का साक्षात्कार कराने वाले श्रीविष्णु सहस्रनामों का महत्व प्रतिपादित किया। 

 

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