श्रीमद भगवदगीता/ Shreemad Bhagwad Gita

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श्रीमद्भगवद्गीता वर्तमान में धर्म से ज्यादा जीवन के प्रति अपने दार्शनिक दृष्टिकोण को लेकर भारत में ही नहीं विदेशों में भी लोगों का ध्यान अपनी और आकर्षित कर रही है। निष्काम कर्म का गीता का संदेश प्रबंधन गुरुओं को भी लुभा रहा है। विश्व के सभी धर्मों की सबसे प्रसिद्ध पुस्तकों में शामिल है। गीताप्रेस गोरखपुर जैसी धार्मिक साहित्य की पुस्तकों को काफी कम मूल्य पर उपलब्ध कराने वाले प्रकाशन ने भी कई आकार में अर्थ और भाष्य के साथ श्रीमद्भगवद्गीता के प्रकाशन द्वारा इसे आम जनता तक पहुंचाने में काफी योगदान दिया है।   गीता में 18 अध्याय और 700 श्लोक हैं।

 

प्रथम अध्याय

 प्रथम अध्याय का नाम अर्जुनविषादयोग है। वह गीता के उपदेश का विलक्षण नाटकीय रंगमंच प्रस्तुत करता है  अर्जुन निर्णय नहीं कर पा रहा था कि युद्ध करे अथवा वैराग्य ले ले। क्या करें, क्या न करें, कुछ समझ में नहीं आता था। इस मनोभाव की चरम स्थिति में पहुँचकर उसने धनुषबाण एक ओर डाल दिया।पहले अध्याय में सामान्य रीति से भूमिका रूप में अर्जुन ने भगवान से अपनी स्थिति कह दी।

प्रथम अध्याय में दोनों सेनाओं का वर्णन किया जाता है

 

दूसरे अध्याय का नाम सांख्ययोग है। इसमें जीवन की दो प्राचीन संमानित परंम्पराऔ का तर्कों द्वारा वर्णन आया है। अर्जुन को उस कृपण स्थिति में रोते देखकर कृष्ण ने उनका ध्यान दिलाया है कि इस प्रकार का क्लैव्य और हृदय की क्षुद्र दुर्बलता अर्जुन जैसे वीर के लिए उचित नहीं।

तीसरा अध्याय 

तीसरे अध्याय का नाम कर्मयोग है। तीसरे अध्याय में अर्जुन ने इस विषय में और गहरा उतरने के लिए स्पष्ट प्रश्न किया कि सांख्य और योग इन दोनों मार्गों में आप किसे अच्छा समझते हैं और क्यों नहीं यह निश्चित कहते कि मैं इन दोनों में से किसे अपनाऊँ? इसपर कृष्ण ने भी उतनी ही स्पष्टता से उत्तर दिया कि लोक में दो निष्ठाएँ या जीवनदृष्टियाँ हैं-सांख्यवादियों के लिए ज्ञानयोग है और कर्ममार्गियों के लिए कर्मयोग है। यहाँ कोई व्यक्ति कर्म छोड़ ही नहीं सकता। प्रकृति तीनों गुणों के प्रभाव से व्यक्ति को कर्म करने के लिए बाध्य करती है। कर्म से बचनेवालों के प्रति एक बड़ी शंका है, वह यह कि वे ऊपर से तो कर्म छोड़ बैठते हैं पर मन ही मन उसमें डूबे रहते हैं। यह स्थिति असह्य है और इसे कृष्ण ने गीता में मिथ्याचार कहा है।

चौथा अध्याय  

चौथे अध्याय में, जिसका नाम ज्ञान-कर्म-संन्यास-योग है, यह बाताया गया है कि ज्ञान प्राप्त करके कर्म करते हुए भी कर्मसंन्यास का फल किस उपाय से प्राप्त किया जा सकता है। यहीं गीता का वह प्रसिद्ध आश्वासन है कि जब जब धर्म की ग्लानि होती है तब तब मनुष्यों के बीच भगवान का अवतार होता है, भगवान अर्थात् की शक्ति विशेष रूप से मूर्त होती है।

 

 

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

          अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥४-७॥

 परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।

                धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥४-८॥

 

 

इसी प्रकार से गीता में 18 अध्यायों का विस्तार से वर्णन किया गया  है।

Description

श्रीमद्भगवद्गीता वर्तमान में धर्म से ज्यादा जीवन के प्रति अपने दार्शनिक दृष्टिकोण को लेकर भारत में ही नहीं विदेशों में भी लोगों का ध्यान अपनी और आकर्षित कर रही है। निष्काम कर्म का गीता का संदेश प्रबंधन गुरुओं को भी लुभा रहा है। विश्व के सभी धर्मों की सबसे प्रसिद्ध पुस्तकों में शामिल है। गीताप्रेस गोरखपुर जैसी धार्मिक साहित्य की पुस्तकों को काफी कम मूल्य पर उपलब्ध कराने वाले प्रकाशन ने भी कई आकार में अर्थ और भाष्य के साथ श्रीमद्भगवद्गीता के प्रकाशन द्वारा इसे आम जनता तक पहुंचाने में काफी योगदान दिया है।   गीता में 18 अध्याय और 700 श्लोक हैं।

 

प्रथम अध्याय

 प्रथम अध्याय का नाम अर्जुनविषादयोग है। वह गीता के उपदेश का विलक्षण नाटकीय रंगमंच प्रस्तुत करता है  अर्जुन निर्णय नहीं कर पा रहा था कि युद्ध करे अथवा वैराग्य ले ले। क्या करें, क्या न करें, कुछ समझ में नहीं आता था। इस मनोभाव की चरम स्थिति में पहुँचकर उसने धनुषबाण एक ओर डाल दिया।पहले अध्याय में सामान्य रीति से भूमिका रूप में अर्जुन ने भगवान से अपनी स्थिति कह दी।

प्रथम अध्याय में दोनों सेनाओं का वर्णन किया जाता है

 

दूसरे अध्याय का नाम सांख्ययोग है। इसमें जीवन की दो प्राचीन संमानित परंम्पराऔ का तर्कों द्वारा वर्णन आया है। अर्जुन को उस कृपण स्थिति में रोते देखकर कृष्ण ने उनका ध्यान दिलाया है कि इस प्रकार का क्लैव्य और हृदय की क्षुद्र दुर्बलता अर्जुन जैसे वीर के लिए उचित नहीं।

तीसरा अध्याय 

तीसरे अध्याय का नाम कर्मयोग है। तीसरे अध्याय में अर्जुन ने इस विषय में और गहरा उतरने के लिए स्पष्ट प्रश्न किया कि सांख्य और योग इन दोनों मार्गों में आप किसे अच्छा समझते हैं और क्यों नहीं यह निश्चित कहते कि मैं इन दोनों में से किसे अपनाऊँ? इसपर कृष्ण ने भी उतनी ही स्पष्टता से उत्तर दिया कि लोक में दो निष्ठाएँ या जीवनदृष्टियाँ हैं-सांख्यवादियों के लिए ज्ञानयोग है और कर्ममार्गियों के लिए कर्मयोग है। यहाँ कोई व्यक्ति कर्म छोड़ ही नहीं सकता। प्रकृति तीनों गुणों के प्रभाव से व्यक्ति को कर्म करने के लिए बाध्य करती है। कर्म से बचनेवालों के प्रति एक बड़ी शंका है, वह यह कि वे ऊपर से तो कर्म छोड़ बैठते हैं पर मन ही मन उसमें डूबे रहते हैं। यह स्थिति असह्य है और इसे कृष्ण ने गीता में मिथ्याचार कहा है।

चौथा अध्याय  

चौथे अध्याय में, जिसका नाम ज्ञान-कर्म-संन्यास-योग है, यह बाताया गया है कि ज्ञान प्राप्त करके कर्म करते हुए भी कर्मसंन्यास का फल किस उपाय से प्राप्त किया जा सकता है। यहीं गीता का वह प्रसिद्ध आश्वासन है कि जब जब धर्म की ग्लानि होती है तब तब मनुष्यों के बीच भगवान का अवतार होता है, भगवान अर्थात् की शक्ति विशेष रूप से मूर्त होती है।

 

 

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

          अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥४-७॥

 परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।

                धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥४-८॥

 

 

इसी प्रकार से गीता में 18 अध्यायों का विस्तार से वर्णन किया गया  है।

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