शिक्षाप्रद पत्र/ Shikshyaprad Patra

25.00

आपकी इच्छा पूर्ण नहीं होती, यह तो उचित ही है । यदि आपकी या इसी प्रकार के भाव वाले अन्य मनुष्यों कि इच्छा पूर्ण होने लगे तो संसार में सारा काम अव्यस्थित हो जाय, क्योंकि आपकी इच्छाओं में तो दूसरोका अहित  और अपना स्वार्थ भरा हुआ है, तभी तो आप पापमय कर्म करते हैं और भले बुरे सभी मनुष्यों कि निंदा करते हैं ।

        यदि आपको अपने जीवनसे घृणा होती है, आपके मनमे अपना सुधार करने की इच्छा होती है तो समझना चाहिये कि भगवान् की बड़ी कृपा है । सुधार चाहनेवालेका सुधार होना कठिन नहीं है, दु:खोंसे छूटने का उपाय तो यही ठीक मालूम होता है कि उस दु:खहारी प्रभुकी शरण ग्रहण करके अपने विवेक का आदर करें तथा वह काम जो हम दूसरों से नहीं चाहते । अर्थात जिसको हम अपने लिये अच्छा समझते है, उसको सबके लिये अच्छा समझें और जिसे हम अपने लिये बुरा समझते हैं, उसे सबके लिये बुरा समझे ।

Description

आपकी इच्छा पूर्ण नहीं होती, यह तो उचित ही है । यदि आपकी या इसी प्रकार के भाव वाले अन्य मनुष्यों कि इच्छा पूर्ण होने लगे तो संसार में सारा काम अव्यस्थित हो जाय, क्योंकि आपकी इच्छाओं में तो दूसरोका अहित  और अपना स्वार्थ भरा हुआ है, तभी तो आप पापमय कर्म करते हैं और भले बुरे सभी मनुष्यों कि निंदा करते हैं ।

        यदि आपको अपने जीवनसे घृणा होती है, आपके मनमे अपना सुधार करने की इच्छा होती है तो समझना चाहिये कि भगवान् की बड़ी कृपा है । सुधार चाहनेवालेका सुधार होना कठिन नहीं है, दु:खोंसे छूटने का उपाय तो यही ठीक मालूम होता है कि उस दु:खहारी प्रभुकी शरण ग्रहण करके अपने विवेक का आदर करें तथा वह काम जो हम दूसरों से नहीं चाहते । अर्थात जिसको हम अपने लिये अच्छा समझते है, उसको सबके लिये अच्छा समझें और जिसे हम अपने लिये बुरा समझते हैं, उसे सबके लिये बुरा समझे ।

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