वर्तमान शिक्षा/ Bartman Siksha

16.00

भारत की संस्कृति और जीवन दर्शन का आधार अध्यात्म है । यही भारत का अन्यतम वैशिष्ट्य है । अध्यात्म का सम्बन्ध आत्मा से है, जोकि मानव में परमचैतन्य सत्ता की उपस्थिति का अन्तरतम मर्म है । भारतीय दर्शन में यह आत्मा ही समस्त ज्ञान का आधार है । ज्ञान, समस्त अन्तर्निहित चेतना का प्रकटीकरण, संवर्धन और विकास है, और शिक्षा मुख्यतः इसी ज्ञानार्जन की साधना है ।

दुर्योग से, वर्तमान शिक्षा पद्धति उसी पाश्चात्य विचार का अनुसरण कर रही है । इससे तैयार हो रही अगली पीढ़ी के लिए शारीरिक बल-सौष्ठव (Body building) का विचार शिक्षा का अंग माना ही नहीं जा रहा । शारीरिक शिक्षा का पर्याय केवल खेल स्पर्धाओं को माना जाता है जिसमें केवल वे ही विद्यार्थी भाग लेते हैं जिन्हें रुचि व क्षमता भी हो और साथ ही सुविधा-साधन भी उपलब्ध हों । यदि बालक को रुचि है तो भी पाठ्यक्रम, गृहकार्य, कोचिंग-ट्यूशन, कम्प्यूटर, हॉबी क्लास और न जाने क्या-क्या, के कारण उसके पास समय नहीं । माता-पिता भी नहीं चाहते कि बच्चा खेलकुद में अपना बेशकीमती समय ‘बर्बाद’ करे, क्योंकि यह कैरियर के लिए व्यवधान उत्पन्न करेगा ।

विष्णु पुराण में कहा गया – ‘सा विद्या या विमुक्तये’ । विमुक्ति का मार्ग दिखाने वाली विद्या की आज किसी को आवश्यकता नहीं रह गई है । शिक्षा का उद्देश्य ज्ञानार्जन । जीवन विकास का मार्ग रूपी ज्ञान जीवन का लक्ष्य ज्ञान । ज्ञान के प्रकाश में ही जीवन के विविध पक्षों का विकास आदि बातें अब कालबाह्य जैसी मानी जाने लगी हैं । सत्यान्वेषण ज्ञान प्राप्ति का उद्देश्य है, परन्तु इस ‘सत्यम्’ के साथ ही ‘शिवम्’ और ‘सुन्दरम्’ भी संस्कृति का अंग है । अतः संस्कृति को सम्पूर्ण जीवन के परिष्कार, ज्ञान के उपार्जन तथा सत्य के अन्वेषण का सूत्र मानते हुए, उसके साधन के रूप में शिक्षा को नौकरी प्राप्ति के योग्य बनाने वाली ‘पढ़ाई’ तक सीमित न मानकर जीवन निर्माण के व्यापक स्वरूप में स्वीकार किया जाना चाहिए । दुर्योग से, इसके विपरीत वर्तमान शिक्षा पद्धति ‘सा विद्या या नियुक्तये’ की अल्पदृष्टि दोष से पीड़ित है ।

Description

भारत की संस्कृति और जीवन दर्शन का आधार अध्यात्म है । यही भारत का अन्यतम वैशिष्ट्य है । अध्यात्म का सम्बन्ध आत्मा से है, जोकि मानव में परमचैतन्य सत्ता की उपस्थिति का अन्तरतम मर्म है । भारतीय दर्शन में यह आत्मा ही समस्त ज्ञान का आधार है । ज्ञान, समस्त अन्तर्निहित चेतना का प्रकटीकरण, संवर्धन और विकास है, और शिक्षा मुख्यतः इसी ज्ञानार्जन की साधना है ।

दुर्योग से, वर्तमान शिक्षा पद्धति उसी पाश्चात्य विचार का अनुसरण कर रही है । इससे तैयार हो रही अगली पीढ़ी के लिए शारीरिक बल-सौष्ठव (Body building) का विचार शिक्षा का अंग माना ही नहीं जा रहा । शारीरिक शिक्षा का पर्याय केवल खेल स्पर्धाओं को माना जाता है जिसमें केवल वे ही विद्यार्थी भाग लेते हैं जिन्हें रुचि व क्षमता भी हो और साथ ही सुविधा-साधन भी उपलब्ध हों । यदि बालक को रुचि है तो भी पाठ्यक्रम, गृहकार्य, कोचिंग-ट्यूशन, कम्प्यूटर, हॉबी क्लास और न जाने क्या-क्या, के कारण उसके पास समय नहीं । माता-पिता भी नहीं चाहते कि बच्चा खेलकुद में अपना बेशकीमती समय ‘बर्बाद’ करे, क्योंकि यह कैरियर के लिए व्यवधान उत्पन्न करेगा ।

विष्णु पुराण में कहा गया – ‘सा विद्या या विमुक्तये’ । विमुक्ति का मार्ग दिखाने वाली विद्या की आज किसी को आवश्यकता नहीं रह गई है । शिक्षा का उद्देश्य ज्ञानार्जन । जीवन विकास का मार्ग रूपी ज्ञान जीवन का लक्ष्य ज्ञान । ज्ञान के प्रकाश में ही जीवन के विविध पक्षों का विकास आदि बातें अब कालबाह्य जैसी मानी जाने लगी हैं । सत्यान्वेषण ज्ञान प्राप्ति का उद्देश्य है, परन्तु इस ‘सत्यम्’ के साथ ही ‘शिवम्’ और ‘सुन्दरम्’ भी संस्कृति का अंग है । अतः संस्कृति को सम्पूर्ण जीवन के परिष्कार, ज्ञान के उपार्जन तथा सत्य के अन्वेषण का सूत्र मानते हुए, उसके साधन के रूप में शिक्षा को नौकरी प्राप्ति के योग्य बनाने वाली ‘पढ़ाई’ तक सीमित न मानकर जीवन निर्माण के व्यापक स्वरूप में स्वीकार किया जाना चाहिए । दुर्योग से, इसके विपरीत वर्तमान शिक्षा पद्धति ‘सा विद्या या नियुक्तये’ की अल्पदृष्टि दोष से पीड़ित है ।

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