रसभक्ति धारा और उसका वाणी साहित्य/ Rasbhakti dhara our Uska Vani Sahitya

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हिन्दी भक्ति काव्य में

रसभक्ति धारा और उसका वाणी साहित्य/ Rasbhakti dhara our Uska Vani Sahitya

लेखक किशोरीशरण ‘अलि’

राधावल्लभ सम्प्रदाय में श्री राधारानी की भक्ति पर जोर दिया है। श्री राधावल्लभ जी का मंदिर वृंदाबन, मथुरा में एक बहुत प्रसिद्ध मंदिर है। यह मंदिर वृंदावन के ठाकुर के सबसे प्रसिद्ध 7 मंदिरों में से एक है, जिसमें श्री राधावल्लभ जी, श्री गोविंद देव जी, श्री बांके बिहारी जी और चार अन्य शामिल हैं। इस मंदिर में, राधारानी का विग्रह नहीं है, लेकिन उनकी उपस्थिति का संकेत देने के लिए कृष्ण जी के बगल में एक मुकुट रखा गया है। क्युकी श्री राधा श्री कृष्णा की आत्मा है जो उनमे ही है।

इस सम्प्रदाय में श्री राधा माधव को एक ही माना हैं। श्रीकृष्ण और श्रीराधा सदा एक दूसरे के सन्मुख है,उनका परस्पर नित्य संयोग है,श्रीकृष्ण ही श्री राधा है,श्रीराधा ही श्रीकृष्ण है,इन दोनों का प्रेम ही वंशी है,
रूप बेलि प्यारी बनी, (सु ) प्रीतम प्रेम तमाल।
दोऊ मन मिलि एक भये, श्री राधाबलभ लाल।।

भक्ति काव्य का स्वरूप अखिल भारतीय था। दक्षिण भारत में दार्शनिक सिद्धांतों के ठोस आधार से समृद्ध होकर भक्ति उत्तर भारत में एक आंदोलन के रूप में फैल गयी। इसका प्रभाव कला, लोक व्यवहार आदि जीवन के समस्त क्षेत्रों पर पड़ा। कबीर, जायसी, मीरा, सूर, तुलसी आदि कवियों के साथ रामानंद, चैतन्य महाप्रभु, वल्लभाचार्य आदि आचार्यों के सिद्धांतों में भक्ति के इसी स्वरूप के दर्शन होते हैं।  भक्ति काव्य के प्रधानतः दो भेद हैं निर्गुण और सगुण भक्ति काव्य। निर्गुण भक्ति काव्य की दो शाखाएं हैं ज्ञानमार्गी जिसके प्रतिनिधि कवि कबीर हैं और प्रेम मार्गी जिसके प्रतिनिधि कवि मलिक मुहम्मद जायसी हैं। सगुण भक्ति काव्य की भी दो शाखाएं हैं। कृष्ण भक्ति शाखा और राम भक्ति शाखा। इनके प्रतिनिधि कवि क्रमशः सूर और तुलसी दास हैं। इसके अतिरिक्त शैव, शाक्त, सिद्ध, नाथ जैन आदि कवि भी इस काल में रचना करते थे।

निर्गुण भक्तिधारा को आगे दो हिस्सों में बांटा गया है। एक है संत काव्य जिसे ज्ञानाश्रयी शाखा के रूप में भी जाना जाता है,इस शाखा के प्रमुख कवि, कबीर, नानक, दादूदयाल, रैदास, मलूकदास, सुन्दरदास, धर्मदास आदि हैं। निर्गुण भक्तिधारा का दूसरा हिस्सा सूफी काव्य का है। इसे प्रेमाश्रयी शाखा भी कहा जाता है।

संतसाहित्य   का अर्थ है- वह धार्मिक साहित्य  जो निर्गुणिए भक्तों द्वारा रचा जाए। यह आवश्यक नहीं कि सन्त उसे ही कहा जाए जो निर्गुण उपासक हो। इसके अंतर्गत लोकमंगलविधायी सभी सगुण-निर्गुण आ जाते हैं, किंतु आधुनिक ने निर्गुणिए भक्तों को ही “संत” की अभिधा दे दी और अब यह शब्द उसी वर्ग में चल पड़ा है।

“संत” शब्द सस्कृत “सत्” के प्रथमा का बहुवचनान्त रूप है, जिसका अर्थ होता है सज्जन और धार्मिक व्यक्ति। हिन्दी  में साधु/सुधारक के लिए यह शब्द व्यवहार में आया। कवीर, रविदास, सूरदास, तुलसीदास आदि पुराने भक्तों ने इस शब्द का व्यवहार साधु और परोपकारी, पुरुष के अर्थ में बहुलांश: किया है और उसके लक्षण भी दिए हैं।

संतवाणी की विशेषता यही है कि सर्वत्र मानवता का समर्थन करती है।

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