मूल भक्तमाल\Mool Bhaktmal

45.00

Description

श्री नाभादासजीकृत श्रीभक्तमाल/ Shri Bhaktmal

[श्रीप्रियादासजीकृत भक्तिरसबोधिनी टिका एवं विस्तृत हिन्दी-व्याख्यासहित]

भक्तमाल एक ऐतिहासिक ग्रन्थ है। इसके रचयिता नाभादास जी या नाभाजी हैं। इसका रचना काल सं. १५६० और १६८० के बीच माना जा सकता है। भक्तमाल में नाभाजी ने इस ग्रन्थ की रचना का उद्देश्य बताया है कि –

अग्रदेव आज्ञा दई भक्तन को यश गाउ ।
भवसागर के तरन कौं नाहिन और उपाउ ॥
भक्तमाल के दो पहलू स्पष्ट ही प्रतीत होते हैं, एक में छप्पयोंमें रामानुजचार्य से पूर्व के सभी प्रकार के भक्तों के नामों का ही स्मरण है। दूसरे में एक-एक कवि या भक्त पर एक पूरा छप्पय, जिसमें उस भक्त के विशिष्ट गुणों पर प्रकाश पड़ता है। एक छप्पय में छः चरणों के एक छन्द में किसी कवि की जीवनी नहीं आ सकती।

इसलिये इसे जीवनी साहित्य नहीं कहा जा सकता। यह भी ठीक है, पर आगे भक्तमाल पर जो टीकाएँ हुई उनमें विस्तारपूर्वक प्रत्येक कवि के जीवन की घटनाओं का वर्णन हुआ है। ऐसी पहली प्रसिद्ध टीका है — प्रियादास की भक्ति रस बोधिनी।

नाभाजी की भक्तमाल की एक परम्परा ही चल पड़ी। कितनी ही भक्तमालाएँ लिखी गई। भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों में अपने-अपने संप्रदायों के भक्तों के विवरण विशेषतः प्रस्तुत किए गए।

भक्तमालाओं की मूल प्रेरणा इस धार्मिक भावना में थी कि भक्त कीर्तन भी हरिकीर्तन है। इस बिन्दु से आरम्भ होकर विविध प्रकार की घटनाओं से युक्त होकर ये भक्तों की कथाएँ अलौकिक तत्वों से युक्त होते हुए भी भक्तों की जीवन-कथा प्रस्तुत करने में प्रवृत्त हुई।

भक्तमाल नाम का रहस्य :
जैसा की इसके भक्तमाल नाम से स्पष्ट है की यह ग्रन्थ भक्तो के परम पवित्र चरित्र रुपी पुष्पों की एक परम रमणीय माला के रूप में गुम्फित है और इस सरस सौरभमयी तथा कभी भी म्लान न होनेवाली सुमन मालिका को श्री हरि नित्य -निरंतर अपने श्री कंठ में धारण किये रहते है ।

जैसे माला में चार वस्तुएं मुख्य होती है – मणियाँ ,सूत्र ,सुमेरु और फुंदना (गुच्छा ) वैसे ही भक्तमाल में भक्तजन मणि है ,भक्ति है सूत्र (जिसमे मणियाँ पिरोयी जाती है ),माला के ऊपर जो सुमेरु होता है वह श्री गुरुदेव है और सुमेरु का जो गाँठ रुपी गुच्छा है वह है हमारे श्री भगवान् ।

भक्तमाल कोई सामान्य रचना नहीं है,अपितु यह एक आशीर्वादात्मक ग्रन्थ है । यह श्री नाभादास जी की समाधि वाणी है । तपस्वी, सिद्ध एवं महान् संत की अहैतुकी कृपा और आशीर्वाद से इस ग्रन्थ का प्राकट्य हुआ है । महाभागवत नाभादास जी जन्म से नेत्रहीन थे , जब श्री गुरुदेव की कृपा से बालक को दृष्टी प्राप्त हुई तब सर्वप्रथम संसार का नहीं अपितु संत दर्शन ही किये ।

श्री नाभादास जी का वास्तविक स्वरुप :
एक बार ब्रह्मा जी ने व्रज के सब ग्वालबालों तथा गौओ और बछड़ो का हरण कर लिया था । इसपर भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी योगमाया के प्रभाव से वैसे ही अन्य ग्वाल – बालों ,गौओं तथा बछड़ो की सृष्टि कर दी ,व्रज के लोगो को इस बात का पता ही नहीं लगा ।

बाद में ब्रह्मा जी ने भगवान् श्रीकृष्ण से अपने अपराध के लिए क्षमा मांगी तो भगवान् ने उन्हें इतना ही दंड दिया की तुम कलियुग में नेत्रहीन होकर जन्म ग्रहण करोगे ,किन्तु तुम्हारा यह अंधापन केवल पांच वर्ष तक ही रहेगा बाद में महात्माओ की कृपा से तुम्हे दिव्य दृष्टि प्राप्त होगी । इस किंवदन्ती के अनुसार ब्रह्मा जी ही श्री नाभादास जी के रूप में प्रकट हुए ।

जो अन्य युगों में भक्त प्रकट हुए उनके चरित्र पुराणों में उपलब्ध होते है परंतु विशेषतः कलिकाल के जो भक्त है उनके चरित्र पुराणों में उपलब्ध नहीं है अतः इन चरित्रों का विस्तार करने हेतु, शैव वैष्णव भेद समाप्त करने हेतु ,संत सेवा ,भगवान् के उत्सवो एवं व्रतो में निष्ठा हेतु ,भक्त सेवा में अपराध से बचने हेतु और संत वेश निष्ठा प्रकट करने हेतु श्री नाभादास जी ने इस ग्रन्थ को प्रकट किया ।

Reviews

There are no reviews yet.

Only logged in customers who have purchased this product may leave a review.