Description
गीताप्रेसके संस्थापक परम श्रद्धेय श्रीजयदयालजी गोयन्दकाके एक ही लगन थी कि मानवमात्र इस भवसागरसे कैसे पार हो! मनुष्य जन्मता है, बड़ा होता है, सन्तान उत्पन्न करता है, मर जाता है । इस प्रकार पशुवत् जीवन बिताकर अन्य योनियोंमें चला जाता है । जीवनकालमें चिन्ता, शोक और दुःखोंसे घिरा रहता है । मनुष्यशरीर पाकर भी यदि चिन्ता और शोकमें डूबा रहा तो उसने मनुष्यशरीरका दुरुपयोग ही किया ।
95 पत्रों का संकलन मनुष्य को अपने जीवन को सार्थक बनाने और दूसरों की निस्वार्थ सेवा के मार्ग पर चलने के लिए सक्षम बनाता है।
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