किशोरीशरण श्रीअलि-ग्रन्थावली/ Shri Kishorisharan -Ali- Granthavali

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प्रेम एकाकी रुप से निराकार होते हुए भी  दो के मध्य मे साकार रुप से दशॆनीय हैं। इसीलिए रसिको ने इसे “निर्गुण-सगुण ब्रह्म ते न्यारो” तथा “हिट महली के महल में निर्गुण-सरगुण दोय” कहकर इसका स्वरूपोद्गगान किया है।
दो के मध्य में दृष्टिगोचर प्रेम एक को प्रेमी तथा दुसरे को प्रेमपात्र संघक बनाता है। यही कारण है की प्रेमी और प्रेमपात्र की उपासना को प्रेम की उपासना कहा जाता है।
‘प्रेम’ के अनवरण और पूर्ण रूप का दर्शन तभी संभव है जबकी-
> प्रेमी और प्रेमपात्र एक प्राण दो देह बाले हो  अथाॆत वे निरंतर एक दुसरे को एकमेक हो जाने के लिए विवश  करते रहते हैं। प्रेम का दो रूपो में प्रकट होना उसकी चेतनाबस्था एवं दो से एक हो जाना उसकी बिबशावस्था कही जाती है।
: प्रेमी और प्रेमपात्र सम-वय, सम-रुचि, और समान-मन, हो।
; प्रेमी और प्रेमपात्र में प्रेम के धर्म- तत्सुखसुखिता, अनन्यता, तदाधीनता, तथा प्रेम के लक्षण-चाह, चटपटी, आधीनता, उज्जवल, कोमलता, वर्धनसिलता मधुरता, मधकता, आदि नित्य वर्तमन हो।
प्रेम स्वभावः लीला प्रिया है प्रेमकी चेतन अवस्था में ही लीला की सुरुआत होती है लीला से रूप का प्रतिपदन होता है और रूप ही उन दोनो में एक को प्रेमी और दशरे को प्रेमपत्र बनता है। प्रेम की यानी लीला का नाम ही नित्यविहार है। प्रेम के पूर्ण रूप का अनवरण दर्शन इस नित्यविहार में ही होता है। क्रिडा धाम सापेक्ष होती है। प्रेम क्रीड़ा का बह धाम प्रेम धाम वृंदावन नाम से अभिसंज्ञात है –

तीन लोक चोदह भुवन, प्रेम कहुँ ध्रुव नाहि।
जगमग रहो जडाव सों, श्रीवृंदावन माहीं।।

प्रेमि और प्रेमपात्र के अंत स्थल में बिधमान ईच्छाओं का समूह ही सखी के रूप में है। प्रेम का उपासक एन्ही सखियो का भावानुकरण करता है।
प्रीति रूपी सखियॉ ही प्रेमी और प्रेमपात्र को प्रेम-क्रीड़ा करने के लिए प्रेरित करते है।

प्रीति मूर्ति सखिया प्रेमी और प्रेमपात्र की प्रेम-क्रीड़ा से संतोषित होकर अदभुतानंद का अनुभव करती है ये अदभुतानंद ही रस है।
एस प्रकर प्रेम ही आस्वाद्य स्थिति में रस संज्ञक होता है। अतः प्रेमोपासना किंवा हितोपासना ही रसोपासना है। एवं प्रेम के उपासक को ही रसिक या रसोपासक कहा जाता है।

पुज्य गुरुवय श्री किशोरीसरण अली जी महाराज ने अपनी कृतियों के मध्यम से इसी परात्पर तत्व ‘प्रेम’ के रूप का संगोपांग विस्लेषण किया है।

Description

किशोरीशरण श्रीअलि-ग्रन्थावली/ Shri Kishorisharan -Ali- Granthavali  सम्पादक- डॉ. श्यामबिहारीलाल खण्डेलवाल

प्रेम एकाकी रुप से निराकार होते हुए भी  दो के मध्य मे साकार रुप से दशॆनीय हैं। इसीलिए रसिको ने इसे “निर्गुण-सगुण ब्रह्म ते न्यारो” तथा “हिट महली के महल में निर्गुण-सरगुण दोय” कहकर इसका स्वरूपोद्गगान किया है।
दो के मध्य में दृष्टिगोचर प्रेम एक को प्रेमी तथा दुसरे को प्रेमपात्र संघक बनाता है। यही कारण है की प्रेमी और प्रेमपात्र की उपासना को प्रेम की उपासना कहा जाता है।
‘प्रेम’ के अनवरण और पूर्ण रूप का दर्शन तभी संभव है जबकी-
> प्रेमी और प्रेमपात्र एक प्राण दो देह बाले हो  अथाॆत वे निरंतर एक दुसरे को एकमेक हो जाने के लिए विवश  करते रहते हैं। प्रेम का दो रूपो में प्रकट होना उसकी चेतनाबस्था एवं दो से एक हो जाना उसकी बिबशावस्था कही जाती है।
: प्रेमी और प्रेमपात्र सम-वय, सम-रुचि, और समान-मन, हो।
; प्रेमी और प्रेमपात्र में प्रेम के धर्म- तत्सुखसुखिता, अनन्यता, तदाधीनता, तथा प्रेम के लक्षण-चाह, चटपटी, आधीनता, उज्जवल, कोमलता, वर्धनसिलता मधुरता, मधकता, आदि नित्य वर्तमन हो।
प्रेम स्वभावः लीला प्रिया है प्रेमकी चेतन अवस्था में ही लीला की सुरुआत होती है लीला से रूप का प्रतिपदन होता है और रूप ही उन दोनो में एक को प्रेमी और दशरे को प्रेमपत्र बनता है। प्रेम की यानी लीला का नाम ही नित्यविहार है। प्रेम के पूर्ण रूप का अनवरण दर्शन इस नित्यविहार में ही होता है। क्रिडा धाम सापेक्ष होती है। प्रेम क्रीड़ा का बह धाम प्रेम धाम वृंदावन नाम से अभिसंज्ञात है –

तीन लोक चोदह भुवन, प्रेम कहुँ ध्रुव नाहि।
जगमग रहो जडाव सों, श्रीवृंदावन माहीं।।

प्रेमि और प्रेमपात्र के अंत स्थल में बिधमान ईच्छाओं का समूह ही सखी के रूप में है। प्रेम का उपासक एन्ही सखियो का भावानुकरण करता है।
प्रीति रूपी सखियॉ ही प्रेमी और प्रेमपात्र को प्रेम-क्रीड़ा करने के लिए प्रेरित करते है।

प्रीति मूर्ति सखिया प्रेमी और प्रेमपात्र की प्रेम-क्रीड़ा से संतोषित होकर अदभुतानंद का अनुभव करती है ये अदभुतानंद ही रस है।
एस प्रकर प्रेम ही आस्वाद्य स्थिति में रस संज्ञक होता है। अतः प्रेमोपासना किंवा हितोपासना ही रसोपासना है। एवं प्रेम के उपासक को ही रसिक या रसोपासक कहा जाता है।

पुज्य गुरुवय श्री किशोरीसरण अली जी महाराज ने अपनी कृतियों के मध्यम से इसी परात्पर तत्व ‘प्रेम’ के रूप का संगोपांग विस्लेषण किया है।

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