ईशावास्योपनिषद्/ Ishavasyo Upanissad

20.00

ईशावास्योपनिषद् (Ishavasya Upanishad)  

ईशावास्योपनिषद् वेदों में से यजुर्वेद के शुक्ल यजुर्वेद शाखा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण उपनिषद् है। यह उपनिषद् छोटा होते हुए भी गूढ़ तत्वज्ञान, कर्म, त्याग, आत्मा और ब्रह्म के अद्वैत स्वरूप को अत्यंत सारगर्भित रूप में प्रस्तुत करता है। इसमें केवल 18 मंत्र हैं, परंतु इसका प्रभाव अत्यंत गहन और व्यापक है।


🔹 नाम का अर्थ:

ईशा” का अर्थ है ईश्वर और “वास्यम्” का अर्थ है आवरण या व्याप्त होना।
इसलिए ईशावास्य का अर्थ है — “यह समस्त जगत ईश्वर से व्याप्त है।”


🔹 मुख्य विषयवस्तु:

  1. ईश्वर की सर्वव्यापकता:
    उपनिषद् का पहला ही मंत्र कहता है:
    ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किं च जगत्यां जगत्…”
    अर्थात्, यह सम्पूर्ण जगत ईश्वर से आवृत है। इस विचार से उपनिषद् ईश्वर की सर्वव्यापकता और उसकी उपस्थिति को प्रतिपादित करता है।

  2. त्याग और संतोष की शिक्षा:
    उपनिषद् कहता है — “तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः” — अर्थात्, त्याग की भावना से भोग करो। इसका आशय है कि संसारी वस्तुओं में आसक्ति न रखते हुए जीवनयापन करो।

  3. कर्म और ज्ञान का समन्वय:
    यह उपनिषद् न तो केवल कर्म का आग्रह करता है और न ही केवल ज्ञान का। यह कहता है कि —
    “कुर्वन्नेवेह कर्माणि…” — जीवनभर कर्म करते हुए भी मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है, यदि कर्म निःस्वार्थ हो।

  4. आत्मा और ब्रह्म की एकता:
    आत्मा (individual soul) और ब्रह्म (Supreme Soul) एक ही हैं। इस उपनिषद् में अद्वैत वेदांत की भावना प्रमुखता से मिलती है।

  5. अंधकार और प्रकाश का प्रतीकवाद:
    यहाँ विद्या और अविद्या, संयम और असंयम, अंधकार और तेज के प्रतीकों द्वारा आध्यात्मिक विकास की बात कही गई है।

Description

ईशावास्योपनिषद् (Ishavasya Upanishad)  

ईशावास्योपनिषद् वेदों में से यजुर्वेद के शुक्ल यजुर्वेद शाखा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण उपनिषद् है। यह उपनिषद् छोटा होते हुए भी गूढ़ तत्वज्ञान, कर्म, त्याग, आत्मा और ब्रह्म के अद्वैत स्वरूप को अत्यंत सारगर्भित रूप में प्रस्तुत करता है। इसमें केवल 18 मंत्र हैं, परंतु इसका प्रभाव अत्यंत गहन और व्यापक है।


🔹 नाम का अर्थ:

ईशा” का अर्थ है ईश्वर और “वास्यम्” का अर्थ है आवरण या व्याप्त होना।
इसलिए ईशावास्य का अर्थ है — “यह समस्त जगत ईश्वर से व्याप्त है।”


🔹 मुख्य विषयवस्तु:

  1. ईश्वर की सर्वव्यापकता:
    उपनिषद् का पहला ही मंत्र कहता है:
    ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किं च जगत्यां जगत्…”
    अर्थात्, यह सम्पूर्ण जगत ईश्वर से आवृत है। इस विचार से उपनिषद् ईश्वर की सर्वव्यापकता और उसकी उपस्थिति को प्रतिपादित करता है।

  2. त्याग और संतोष की शिक्षा:
    उपनिषद् कहता है — “तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः” — अर्थात्, त्याग की भावना से भोग करो। इसका आशय है कि संसारी वस्तुओं में आसक्ति न रखते हुए जीवनयापन करो।

  3. कर्म और ज्ञान का समन्वय:
    यह उपनिषद् न तो केवल कर्म का आग्रह करता है और न ही केवल ज्ञान का। यह कहता है कि —
    “कुर्वन्नेवेह कर्माणि…” — जीवनभर कर्म करते हुए भी मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है, यदि कर्म निःस्वार्थ हो।

  4. आत्मा और ब्रह्म की एकता:
    आत्मा (individual soul) और ब्रह्म (Supreme Soul) एक ही हैं। इस उपनिषद् में अद्वैत वेदांत की भावना प्रमुखता से मिलती है।

  5. अंधकार और प्रकाश का प्रतीकवाद:
    यहाँ विद्या और अविद्या, संयम और असंयम, अंधकार और तेज के प्रतीकों द्वारा आध्यात्मिक विकास की बात कही गई है।

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1 review for ईशावास्योपनिषद्/ Ishavasyo Upanissad

  1. Code of destiny

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