बृज के संत/ Braj Ke Sant

चैतन्य संप्रदाय को गौड़ीय संप्रदाय भी कहा जाता है। इसके प्रवर्तक नित्यानंद प्रभु हैं।

नित्यानंद प्रभु (जन्म:१४७४) चैतन्य महाप्रभु के प्रथम शिष्य थे। इन्हें निताई भी कहते हैं। इन्हीं के साथ अद्वैताचार्य महाराज भी महाप्रभु के आरंभिक शिष्यों में से एक थे। … इनके माता-पिता, वसुदेव रोहिणी के तथा नित्यानंद बलराम के अवतार माने जाते हैं

बृज मे जन्म लेने वाले या यहॉ आकर निवास करने वाले सभी संतो का वर्णन किया है।

इस ग्रन्थ के तीन भाग हैं-

1 बृज के संत

2 श्री चैतन्य भक्तगाथा

3 हमारे छःगोस्वामी

श्री चैतन्य के पुरवाज़, गुरुवर्ग, छह गोस्वामी, परिकर स्वरूप विभीन भक्तो के चमत्कारी जीवन चरित्र का वर्णन किया गया हैं।

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ब्रज भक्ति के 64 अंग/ Braj Bhakti ke 64 Anga

ब्रज के सभी रसिक संतों के मत अनुसार बृज वृन्दावन का आनंद सभी दिव्य क्षेत्रों में सर्वोच्च है। इस रसोपासना रूपी भक्ति में मूलतः रस की ही उपासना है । इस पुस्तक के ज़रिए रसिकों द्वारा स्थापित रस मार्ग और ब्रज धाम के विभिन्न स्थानों की भव्यता को प्रकाशित करने का एक थोड़ा सा प्रयास है ।

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बृज के व्रत-उत्सव/ Braj ke Vrat- Utsav

प्रकृति पूजा भी ब्रज के रोम- रोम में रमी है। जैसा हम कह चुके हैं कि ब्रज की संस्कृति मूलतः वन्य संस्कृति थी, अतः वृक्षों, पर्वतों, पक्षियों की पूजा भी ब्रज में प्रचलित है। भगवान कृष्ण ने स्वयं गिरिराज की पूजा की थी और गिरिराजजी इसीलिए ब्रजवासियों के ही नहीं, पूरे देश के इष्टदेव के इष्टदेव हैं। देश भर के भक्त प्रतिवर्ष दूर- दूर से आकर गिरिराज परिक्रमा करते हैं। ब्रज में गिरिराज को विष्णु रुप, बरसाने के वृहत्सानु पर्वत को ब्रह्मा रुप तथा नंदगाँव के पर्वत को शिव रुप माना जाता है और इनकी बड़ी श्रद्धा से परिक्रमा की जाती है। ब्रज के वन- उपवनों की परिक्रमा तो “ब्रज- यात्रा’ या “वन- यात्रा’ के रुप में प्रतिवर्ष देश भर से पधारे हजारों यात्री सामूहिक रुप से करते हैं। गोपाष्टमी और गो पूजन, नाग- पंचमी पर नाग पूजन तथा वृहस्पतिवार को केला तथा वट सावित्री पर्व पर बड़ की पूजा की जाती हैं। पुत्र जन्म के अवसर पर ब्रज में यमुना पूजन बड़ी धूमधाम से किया जाता है।
ब्रज के संबंध में कहावत प्रचलित है कि “सात बार नौ त्योहार’ उत्सव, उल्लास तथा अभावों में भी जीवन को पूरी मस्ती से जीना, हंसी- ठिठोली, मसखरीव चुहलपूर्ण जीवन ब्रजवासियों की विशेषता है। नृत्य, गायन, आमोद- प्रमोद से परिपूर्ण जीवन जीने के ब्रजवासी आदी रहे हैं। होली को ही लें, तो यहाँ बसंत पंचमी से प्रारंभ होकर होली का उल्लास आधे चैत तक चलताहै। रास, रसिया, भजन, आल्हा, ढोला, रांझा, निहालदे, ख्याल, जिकड़ी के भजन यहाँ के ग्रामीण जीवन में भरे हैं, तो नागरिक जीवन में ध्रुवपद- धमाल, ख्याल, ठुमरी आदि तथा मंदिरों में समाज- संगीत की अनेक परंपराएँ यहाँ पनपी हैं, जो जीवन को निरंतर कलात्मकता, सरसता और जीवंतता से ओतप्रोत बनाए रहती हैं। स्वांग, भगत व रास ब्रज के ऐसे रंगमंच हैं, जो पूरे उत्तर भारत में लोकप्रिय हैं।

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बृज के परिकार/ Brij ke Parikar

चैतन्य संप्रदाय को गौड़ीय संप्रदाय भी कहा जाता है। इसके प्रवर्तक नित्यानंद प्रभु हैं।

नित्यानंद प्रभु (जन्म:१४७४) चैतन्य महाप्रभु के प्रथम शिष्य थे। इन्हें निताई भी कहते हैं। इन्हीं के साथ अद्वैताचार्य महाराज भी महाप्रभु के आरंभिक शिष्यों में से एक थे। … इनके माता-पिता, वसुदेव रोहिणी के तथा नित्यानंद बलराम के अवतार माने जाते हैं

 

बृज मे जन्म लेने वाले या यहॉ आकर निवास करने वाले सभी संतो का वर्णन किया है। 

इस ग्रन्थ के तीन भाग हैं-

1 बृज के संत

2 श्री चैतन्य भक्तगाथा

3 हमारे छःगोस्वामी 

 

श्री चैतन्य के पुरवाज़, गुरुवर्ग, छह गोस्वामी, परिकर स्वरूप विभीन भक्तो के चमत्कारी जीवन चरित्र का वर्णन किया गया हैं।

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बृज भाव/ Braj Bhav

श्री भाईजी जैसी विभूतियाँ युगों-युगों में इस धरा पर आती है| उनकी स्थिति अनिर्वचनीय है| ऐसे अप्रतिम संत के मुखारविंद से नि:सृत वाणी को पुस्तकाकार रूप में करने के लिए श्रद्धालु साधकों और प्रेमीजनों का बहुत वर्षों से निरंतर आग्रह था| आपके सामने यह पुस्तक प्रतुत है|

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प्रेम की पीर/ Prem Ki Peer

प्रेम की पीर राधावल्लभ संप्रदाय के एक रसिक संत भोरी सखी (भोरी सखी) के नाम से लोकप्रिय श्री भोलानाथ जी द्वारा रचित छंदों का एक संग्रह है। प्रेम की पीर छंद दिल दहला देने वाले और गहराई से चलने वाले हैं क्योंकि वे श्री लाडली जू के लिए भोरी सखी की तीव्र लालसा (विरह) और प्रेम का वर्णन करते हैं। छंदों की समग्र मनोदशा नम्रता और आत्म-निंदा में से एक है क्योंकि वह रोती है और रोती है और अपने प्रिय से अलगाव के गंभीर दर्द का अनुभव करती है।

ऐसा कहा जाता है कि भोरी सखी का विलाप इतना भावुक और मार्मिक था कि ब्रजवासी (ब्रजवासी) श्री लाडली जू से उन्हें दर्शन देने की प्रार्थना करते थे। प्रेम की पीर को सुनने या उसका पाठ करने से श्री श्यामश्याम के प्रति हमारा प्रेम और प्रगाढ़ हो जाएगा।

छतरपुरके महाराज द्वारा बुलाए जानेपर ये पुनः छतरपुर आ गए, और फिर धीरे-धीरे छतरपुर में भी उनका मन ऊबने लगा । ये वाणीग्रंथों का पाठ करते और उसमे वर्णित श्रीराधा-कृष्ण की दिव्य लीलाओं का चिंतन करते रहते, और ब्रज के सुमधुर प्रेमरस में हर समय डूबे रहते थे इसीसे उनके ह्रदय देश में प्रेम के विरह की अग्नि से ओतप्रोत पदों का सागर उमड़ उठा जिन्हें भोरीसखी के पद का नाम दिया गया। ये पद ब्रजवासियों की उत्कृष्ट अभिलाषा को दिखलाते हैं-

दीजै मोहि वास व्रज माहीं ।
जुगल नामकौ भजन निरंतर, और कदम्बन छाहीं ।।
बृज-बासिनके जूठन टूटा, आरु जमुना कौ पानी ।
रसिकनकी सत-संगत दीजै, सुनियो रसभरी बानी ।।

सखी संप्रदाय, निम्वार्क मत की एक शाखा है जिसकी स्थापना स्वामी हरीदासजी (जन्म सम० १४ ४१ वि०) ने की थी। इसे हरिदासी सम्प्रदाय भी कहते हैं। इसमें भक्त अपने आपको कृषण की सखी मानकर उसकी उपासना तथा सेवा करते हैं और प्रायः स्त्रियों के भेष में रहकर उन्हीं के आचारों, व्यवहारों आदि का पालन करते हैं। सखी संप्रदाय के साधु विषेश रूप से भारत वर्ष में उत्तर प्रदेश के ब्रजक्षेत्र वृन्दावन, मथुरा, गोवर्धन में निवास करते हैं।

स्वामी हरिदास जी के द्वारा निकुंजोपासना के रूप में श्यामा-कुंजबिहारी की उपासना-सेवा की पद्धति विकसित हुई, यह बड़ी विलक्षण है। निकुंजोपासना में जो सखी-भाव है, वह गोपी-भाव नहीं है। निकुंज-उपासक प्रभु से अपने लिए कुछ भी नहीं चाहता, बल्कि उसके समस्त कार्य अपने आराध्य को सुख प्रदान करने हेतु होते हैं। श्री निकुंजविहारी की प्रसन्नता और संतुष्टि उसके लिए सर्वोपरि होती है।

यह संप्रदाय “जिन भेषा मोरे ठाकुर रीझे सो ही भेष धरूंगी ” के आधार पर अपना समस्त जीवन “राधा-कृष्ण सरकार” को निछावर कर देती है। सखी संप्रदाय के साधु अपने को “सोलह सिंगार” नख से लेकर चोटी तक अलंकृत करते हैं। सखी संप्रदाय के साधुओं में तिलक लगाने का अलग ही रीति है। सखी संप्रदाय के साधु अपने को सखी के रूप में मानते हैं, यहाँ तक कि रजस्वला के प्रतीक के रूप में स्वयं को तीन दिवस तक अशुद्ध मानते हैं।

तुमने आज लौं बात न पूछी, को द्वारे चिल्लाते न पूछी ।
जीवन बीत्यौ गोद पसारे, कहा लोभ ललचात न पूछी ।।
मैं नित हौंस भरी कहिबे की, हंसि कबहूं कुसलात न पूछी ।
कोटि उपाय कियै पै तुमने, का सोचत दिन रात न पूछी ।।
कैसे कटत दिवस-निसि तेरे, का दुख सूखत गात न पूछी ।
भोरी दीन दुखी आरत सौं, विहंसि हृदयकी बात न पूछी ।।

मैंने तो अपनी ओरसे सारे नाते तुमसे ही मान रखे हैं पर मुझे संदेह है क्या तुमभी मुझे अपनी चेरी मानती हो ? यदि तुम मुझे अपना मानती तो मेरी सुध अवश्य लेती, मुझसे पूछती कि भोरी आखिर तू चाहती क्या है ?

 

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Bharat bliss

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