Published On: January 16, 202240 words0.2 min read

स्वामी हरिदास (अंग्रेज़ी: Swami Haridas) भक्त कवि, शास्त्रीय संगीतकार तथा कृष्णोपासक ‘सखी संप्रदाय’ के प्रवर्तक थे, जिसे ‘हरिदासी संप्रदाय‘ भी कहते हैं। इन्हें ललिता सखी का अवतार माना जाता है। इनकी छाप रसिक है। इनके जन्म स्थान और गुरु के विषय में कई मत प्रचलित हैं। इनका जन्म समय कुछ ज्ञात नहीं है। हरिदास स्वामी ‘वैष्णव’ भक्त थे तथा उच्च कोटि के संगीतज्ञ भी थे। प्रसिद्ध गायक तानसेन इनके शिष्य थे। सम्राट अकबर इनके दर्शन करने वृंदावन गए थे। ‘केलिमाल’ में इनके सौ से अधिक पद संग्रहित हैं। इनकी वाणी सरस और भावुक है। ये प्रेमी भक्त थे।

जीवन परिचय

‘श्री बांकेबिहारीजी महाराज’ को वृन्दावन में प्रकट करने वाले स्वामी हरिदास जी का जन्म विक्रम सम्वत् 1535 में भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी (श्रीराधाष्टमी) को ब्रह्म मुहूर्त में हुआ था। इनके पिता का नाम आशुधीर तथा माता का नाम चित्रादेवी था। उनके पिता अपने उपास्य श्रीराधा-माधव की प्रेरणा से पत्नी के साथ अनेक तीर्थो की यात्रा करने के पश्चात अलीगढ़ जनपद, उत्तर प्रदेश की कोल तहसील में ब्रज आकर एक गांव में बस गए थे। अपनी बाल्‍यावस्‍था से ही हरिदास का भगवान की लीला के अनुकरण के प्रति प्रेम था और वे खेल में भी बिहारी की सेवायुक्‍त क्रीड़ा में ही तत्‍पर रहते थे। माता-पिता भगवान के सीधे-सादे भक्त थे। हरिदास के चरित्र-विकास पर उनके सम्‍पर्क और संग तथा शिक्षा-दीक्षा और रीति-नीति का विशेष प्रभाव पड़ा। हरिदास को उनके पिता ने ही यज्ञोपवीत-संस्कार के उपरान्त वैष्णवी दीक्षा प्रदान की थी।

विवाह

युवा होने पर माता-पिता ने हरिदास का विवाह हरिमति नामक परम सौंदर्यमयी एवं सद्गुणी कन्या से कर दिया, किंतु हरिदास की आसक्ति तो अपने श्यामा-कुंजबिहारी के अतिरिक्त अन्य किसी में थी ही नहीं। उन्हें गृहस्थ जीवन से विमुख देखकर उनकी पतिव्रता पत्नी ने उनकी साधना में विघ्न उपस्थित न करने के उद्देश्य से योगाग्नि के माध्यम से अपना शरीर त्याग दिया और उनका तेज हरिदास के चरणों में लीन हो गया।

गृह त्याग

हरिदास का मन घर-गृहस्‍थी में लगा ही नहीं। वे उपवनों में, सर-सरिता के तट पर और एकान्‍त स्‍थानों में विचरण किया करते थे। एक दिन अवसर पाकर 25 वर्ष की अवस्‍था में एक विरक्त वैष्‍णव की तरह वे घर से अचानक निकल पड़े। माता-पिता का स्‍नेह भगवदनुराग की रसमयी सीमा में बढ़ने से उन्‍हें रोक न सका। परिवार सुख वैराग्‍य की अचल नींव को न हिला सका। बचपन में उन्‍हें काव्‍य और संगीत की सुन्‍दर शिक्षा मिली थी। इन दोनों कलाओं के अभ्‍यास का सुख उन्‍होंन भगवान श्रीकृष्ण के चरणों पर निछावर कर उनके सरस यशगान को ही अपनी साधना की परमोत्‍कृष्‍ट सिद्धि समझा।

वृन्दावन प्रस्थान

वृन्दावन प्रस्थान विक्रम सम्वत् 1560 में पच्चीस वर्ष की अवस्था में हरिदास वृन्दावन पहुँचे। वहाँ उन्होंने निधिवन को अपनी तपोस्थली बनाया। हरिदास जी निधिवन में सदा श्यामा-कुंजबिहारी के ध्यान तथा उनके भजन में तल्लीन रहते थे। स्वामीजी ने प्रिया-प्रियतम की युगल छवि श्री बांकेबिहारीजी महाराज के रूप में प्रतिष्ठित की। हरिदासजी के ये ठाकुर आज असंख्य भक्तों के इष्टदेव हैं। वैष्णव स्वामी हरिदास को श्रीराधा का अवतार मानते हैं। श्यामा-कुंजबिहारी के नित्य विहार का मुख्य आधार संगीत है। उनके रास-विलास से अनेक राग-रागनियां उत्पन्न होती हैं। ललिता संगीत की अधिष्ठात्री मानी गई हैं। ललितावतार स्वामी हरिदास संगीत के परम आचार्य थे। उनका संगीत उनके अपने आराध्य की उपासना को समर्पित था, किसी राजा-महाराजा को नहीं। बैजूबावरा और तानसेन जैसे विश्व-विख्यात संगीतज्ञ स्वामी जी के शिष्य थे। मुग़ल सम्राट अकबर उनका संगीत सुनने के लिए रूप बदलकर वृन्दावन आया था। विक्रम सम्वत 1630 में स्वामी हरिदास का निकुंजवास निधिवन में हुआ।

सखी-सम्प्रदाय

स्वामी जी ने एक नवीन पंथ सखी-सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया। उनके द्वारा निकुंजोपासना के रूप में श्यामा-कुंजबिहारी की उपासना-सेवा की पद्धति विकसित हुई, यह बडी विलक्षण है। निकुंजोपासना में जो सखी-भाव है, वह गोपी-भाव नहीं है। निकुंज-उपासक प्रभु से अपने लिए कुछ भी नहीं चाहता, बल्कि उसके समस्त कार्य अपने आराध्य को सुख प्रदान करने हेतु होते हैं। श्री निकुंजविहारी की प्रसन्नता और संतुष्टि उसके लिए सर्वोपरि होती है। राधाष्टमी के पावन पर्व में स्वामी हरिदास का पाटोत्सव (जन्मोत्सव) वृन्दावन में बड़े धूमधाम के साथ मनाया जाता है। सायंकाल मंदिर से चाव की सवारी निधिवन में स्थित उनकी समाधि पर जाती है। ऐसा माना जाता है कि ललितावतार स्वामी हरिदास की जयंती पर उनके लाडिले ठाकुर बिहारीजी महाराज उन्हें बधाई देने श्रीनिधिवन पधारते हैं। देश के सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ निधिवन में स्वामीजी की समाधि के समक्ष अपना संगीत प्रस्तुत करके उनका आशीर्वाद लेते हैं।

संदर्भ

अरे मर्त्य प्राणी क्यों अभिमान करता है? तेरा शरीर कुतों और श्रृगालों का भोज्य बनेगा, तथापि तू निर्ल्लज्ज और निर्भय ऐंठकर चलता है। सभी का यह अन्त सारे संसार को विदित है। ब्राह्मण वीरबल एक महान पुरुष था, तथापि उसकी मृत्यु हुई। उसकी मृत्यु से सम्राट अकवर का हृदय शोकाकुल हुआ। वह भी जीवित न रहा और न कोई सहायता मिली। जब देवासुर मृत्यु को प्रापत होते हैं, मृत्यु उनकी जुगाली करती है। न इधर न उधर , बीच में ही तू किस किसके घर भटकता है सभी भ्रमित हैं और अभिमान में फूले हुए हैं, तेरा किस पर विश्वास है? हरि के पद-कमलों की आराधना कर। घर-घर घूमना और भटकना सब अभिमान है। हरिदास के विषुल वल से बिहारिनदास ने उस सर्वाच्च को प्राप्त कर लिया है।

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