Description
“समता अमृत और विषमता विष“ – यह पुस्तक श्री जयदयाल गोयन्दका जी द्वारा रचित एक गहन वैदिक और सांस्कृतिक चिंतन है, जो समाज में व्याप्त विषमता (असमानता) की जड़ों को उजागर करता है और समता (समानता) के वैदिक, धार्मिक और नैतिक सिद्धांतों की महिमा को प्रस्तुत करता है।
यह पुस्तक दर्शाती है कि समता ही मानवता का अमृत है, जबकि विषमता संहारक विष के समान है, जो समाज, राष्ट्र और आत्मा – तीनों का पतन करता है।
🕉️ मुख्य विषय-वस्तु / Key Themes:
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समता का वैदिक सिद्धांत:
सभी जीवों में आत्मा समान है, भेद केवल शरीर, गुण और कर्म के आधार पर है। यह अध्यात्मिक समता का आधार है। -
विषमता का खंडन:
जाति, वर्ण, पद, संपत्ति या जन्म के आधार पर उत्पन्न भेदभाव सामाजिक विकृति हैं, जिनका समर्थन न वेद करते हैं, न संत। -
धार्मिक ग्रंथों का सटीक विवेचन:
गोयन्दका जी वेद, उपनिषद, गीता और अन्य शास्त्रों के प्रमाण देकर यह सिद्ध करते हैं कि धर्म कभी विषमता को नहीं मान्यता देता। -
सामाजिक समरसता का संदेश:
पुस्तक समरस समाज की ओर प्रेरित करती है – जहाँ न ऊँच-नीच हो, न अहंकार हो, न अपमान। -
धार्मिक कुप्रथाओं पर प्रहार:
पाखंड, रूढ़िवाद और धर्म के नाम पर विषमता फैलाने वालों की कटु आलोचना की गई है, पर संतुलित और शास्त्रीय भाषा में।
📚 पुस्तक की विशेषताएं / Highlights:
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सरल, तर्कपूर्ण और ओजस्वी भाषा।
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शास्त्र सम्मत तात्त्विक विवेचन।
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धार्मिक दृष्टिकोण से सामाजिक समता का समर्थन।
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आधुनिक समस्याओं पर सनातन समाधान।
🎯 पाठकों के लिए उपयुक्त:
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सामाजिक समरसता में रुचि रखने वाले
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भारतीय दर्शन और धर्म के विद्यार्थी
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वैदिक सिद्धांतों के माध्यम से सामाजिक सुधार चाहने वाले
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जाति-वर्ण पर तर्कपूर्ण और शास्त्रीय दृष्टिकोण समझना चाहने वाले
📌 पुस्तक का उद्देश्य:
धर्म और अध्यात्म के नाम पर समाज में फैलाई गई विषमता की आलोचना करते हुए, “वसुधैव कुटुम्बकम्” की भावना से ओतप्रोत एक समतामूलक समाज की स्थापना का संदेश देना।
Additional information
Weight | 0.2 g |
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