पातञ्जलयोगप्रदीप/ Patanjal Yog Pradeep

240.00

श्रद्धेय श्री ओमानन्द महाराज द्वारा प्रणीत इस ग्रन्थ में पातञ्जलयोग-सूत्रों की व्याख्या तत्त्ववैशारदी, भोजवृत्ति तथा योगवार्तिक के अनुसार विस्तृत रूप से की गयी है। इस में उपनिषदों तथा भारतीय दर्शनों के विभिन्न तत्त्वों की सुन्दर समालोचना है।

पतंजलि का योग सूत्र 195 संस्कृत का एक संग्रह है सूत्र के सिद्धांत और व्यवहार पर योग । योग सूत्र ऋषि द्वारा 500 ईसा पूर्व और 400 सीई के बीच कुछ समय संकलित किया गया था पतंजलि भारत में, जिन्होंने बहुत पुरानी परंपराओं से योग के बारे में ज्ञान को व्यवस्थित और व्यवस्थित किया। पतंजलि का योग सूत्र मध्यकालीन युग में सबसे अधिक अनुवादित प्राचीन भारतीय पाठ था, जिसका लगभग चालीस भारतीय भाषाओं और दो गैर-भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया गया था: पुराना जवानी तथा अरवी पाठ 12 वीं से 19 वीं सदी के लगभग 700 वर्षों तक सापेक्ष अस्पष्टता में गिर गया, और 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के प्रयासों के कारण वापसी की विवेकानंद जी जिसने 20 वीं शताब्दी में फिर से वापसी के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त की।

इस की व्याख्या सरल तथा सुगम है। भूमिकारूप में षड्दर्शन समन्वय तथा तत्त्वविश्लेषण-प्रणाली से यह ग्रन्थ और भी उपयोगी हो गया है। यह योग-दशर्न के जिज्ञासुओं के लिये नित्य पठनीय है।

Description

श्रद्धेय श्री ओमानन्द महाराज द्वारा प्रणीत इस ग्रन्थ में पातञ्जलयोग-सूत्रों की व्याख्या तत्त्ववैशारदी, भोजवृत्ति तथा योगवार्तिक के अनुसार विस्तृत रूप से की गयी है। इस में उपनिषदों तथा भारतीय दर्शनों के विभिन्न तत्त्वों की सुन्दर समालोचना है।

पतंजलि का योग सूत्र 195 संस्कृत का एक संग्रह है सूत्र के सिद्धांत और व्यवहार पर योग । योग सूत्र ऋषि द्वारा 500 ईसा पूर्व और 400 सीई के बीच कुछ समय संकलित किया गया था पतंजलि भारत में, जिन्होंने बहुत पुरानी परंपराओं से योग के बारे में ज्ञान को व्यवस्थित और व्यवस्थित किया। पतंजलि का योग सूत्र मध्यकालीन युग में सबसे अधिक अनुवादित प्राचीन भारतीय पाठ था, जिसका लगभग चालीस भारतीय भाषाओं और दो गैर-भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया गया था: पुराना जवानी तथा अरवी पाठ 12 वीं से 19 वीं सदी के लगभग 700 वर्षों तक सापेक्ष अस्पष्टता में गिर गया, और 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के प्रयासों के कारण वापसी की विवेकानंद जी जिसने 20 वीं शताब्दी में फिर से वापसी के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त की।

इस की व्याख्या सरल तथा सुगम है। भूमिकारूप में षड्दर्शन समन्वय तथा तत्त्वविश्लेषण-प्रणाली से यह ग्रन्थ और भी उपयोगी हो गया है। यह योग-दशर्न के जिज्ञासुओं के लिये नित्य पठनीय है।

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